Friday 19 December 2014

" बटकी में बासी अउ चुरकी में नून - में गावत हों ददरिया तें हा कान धर के  सून "

देवेन्द्र कुमार शर्मा  113 त्रिमूर्तिचोक  सुंदरनगर रायपुर छत्तीसगढ़ 
छत्‍तीसगढ के द्वार प्राचीन  काल से लेकर  वर्तमान समय तक  हर आगंतुक के स्वागत के  लिए सदैव खुले रहे हैं । "अतिथि देवो भव" शायद इसी प्रदेश के लिए सही रूप में फिट बैठती है। रामायण  व् अन्य  धार्मिक ग्रंथो के अनुसार  वनवास काल में श्रीराम और पाण्‍डवों को  जहां दण्‍डकारण्‍य नें आश्रय दिया था ।  वहीं    देश के   विभाजन के पश्चात  बंगाल से आये शरणार्थियों को दण्‍डकारण्‍य योजना के अंतर्गत आश्रय दिया है।तो  निर्वासित तिब्बतियो को सरगुजा जिले के मैनपाट  ने  आश्रय दिया है। कुछ लोग  छत्‍तीसगढ के इस अतिथि  प्रेम को उसकी निर्बलता  समझ लेते है। किन्तु समझने वालों को इतना ही स्‍मरण कर लेना पर्याप्त  होगा कि कौरवों को पराजित करने वाली पाण्‍डवों की विजयवाहिनी को इसी प्रदेश में बब्रुवाहन एवं ताम्रध्‍वज के रूप में दो दो बार चुनौती का सामना करना पडा था ।और छत्तीसगढ़िया ही उन पर भरी पड़े थे।
"बटकी में बासी अउ चुरकी में नून "
‘ भारत वर्ष में छत्‍तीसगढ का एरिया  धान का कटोरा  कहा जाता है। इसके पीछे कारण  यह है की धान की जितनी  अधिक किस्में  छत्‍तीसगढ में पायी जाती है उतनी और कही  भी आपको नही मिलेगा।  भारत में पडे  1828 से 1908 तक पडे भीषण अकालों नें  ही हमारे छत्तीसगढ़ वासियो को   बासी और नून खिलाना सिखाया है। "बटकी में बासी अउ चुरकी में नून " गीत तो आपने सुना ही होगा न।  ,जो की  आगे  इस तरह है

" बटकी में बासी अउ चुरकी में नून - में हा  गावत हावो  ददरिया  तें  हा कान  धर के  सून "
हम छत्तीसगढ़िया बटकी(कांसे का पात्र) में बासी और चुरकी  में नून तो  खाते ही है। और यही तो हमारा जीवन है ।   क्‍योंकि धान से ही तो हमारे  छत्‍तीसगढ का जीवन है । धान पर आधारित  अनेको लोकगीत बने हुए है। अर्थात धान  हमारे  गीतों में भी रचा-बसा है।
"बतकी में बासी ,दोना में दही ,
पटवारी ल बलादे  , नापन  जाही। "
  हम पके चावल को छोटे पात्र (बटकी) में पानी में डुबो कर ‘बासी’ बनाते हैं और एक हांथ के चुटकी में नमक लेकर दोनों का स्‍वाद ले के खाते हैं। ‘बासी’ रात  में डुबाया भात (पका हुआ चाँवल )  और दिन में पानी में  डुबोया भात " बोरे " कहलाता है। ह  भाई यही आम ग्रामीण  छत्तीसगढ़ियों का  प्रिय भोजन है।

और यदि साथ में दही या मठा (माहि )हो। आम के अरक्का (आचार ) ,चटनी  हो। घर के बाडी में लगाये  कांदा (शकरकन्द )की या खेड़ा  की   भी भाजी खट्टी सब्‍जी या  लाल फुल वाले  अमारी के छोटे पौधे के कोमल-कोमल पत्‍तों या उसके फूल  से बनी खट्टी चटनी ,लाइबरी (धन की लाइ  फोड़कर उससे  बनी बड़ी ) बिजोरी ,पापड़ और प्याज़  भी  साथ में हो तो क्या बात है ?
छत्तीसगढ़ के लोकगीत :
छत्तीसगढ़ के गीत दिल को छु लेती है यहाँ की संस्कृति में गीत एवं नृत्य का बहुत महत्व है। इसीलिये यहाँ के लोगों के आम बोल चल में भी मधुरता है।
 छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीतों में  है - सुआ गीत, ददरिया, करमा, डण्डा, फाग, चनौनी, बाँस गीत, राउत गीत, पंथी गीत आदि ।यहा  के लोकगीत में विविधता है, गीत अपने आकार में छोटे और गेय होते है। गीतों का प्राणतत्व है भाव प्रवणता।
 ददरिया :-

यह  छत्तीसगढ़  का  प्रेम गीत है, जिसमे  संवाद के माध्यम से दो पक्षो  में प्रेमी और प्रेमिका की आपसी  नोकझोक है। इस  को  बड़े उल्‍लास के साथ  धान के खेतों, खलिहानों में काम करते हुए ,डोंगरी व वनों के रास्तो  में गा , गा कर भाव विभोर हो जाते है।गाव खेड़ा में अचानक ही एक मर्द  अपनी  पहली पंक्ति में  गीतों में प्रश्न  बोलेगा  तुरंत ही लड़कियों में  से बड़े ही मनोरंजक  तरीके से  गीतों के माध्यम से प्रति उत्तर सुनाई पड़ेगा।यानि पहेली भी इसके माध्यम से पूछे  व् हल की जाती है ।
छिन छिन पानी ,छिन छिन  घाम ,,
घिन घिनहा बलाये ,बदन भइस आग.।
( कभी कभी पानी गिरने का पल है ,तो कभी कभी धुप  निकलने का ,और   ऐसे मौसम में कोई गन्दा है और  वो   बुलाये तो बदन में आग  तो  लगना   ही है।
अलग डार में फरे लकड़ियाँ ,
जओन ल चाटे तोर डोकरिया
नही बताही तो  हिलहि  कनिहा
(पहेली का उत्तर है मुनगा  ड्रमस्टिक )
इस नोकझोक के बीच ही   में कभी कभी  बांसुरी की मधुर तान के साथ साथ ही  ददरिया  गया जाता हैं । और या  बांस की मधुर धुन के साथ भी  गीत भी सुनाई पड़ते है । जिसे की बास  गीत के रूप में भी गाते  है।  राउत जाती के लोगो को सबसे ज्यादा पसंद की गीत  है।यद्यपि  कहि- कहि  मर्यादाओ की सीमा  भी लाँघ जाता है। किन्तु अगले ही चरण में वहीं, इसके साथ ही, मर्यादा का संतुलन भी   बनता हुआ  नजर आता है।
खड़े  मंझनिया निकल  पनिया ,
दंगनि बिध डोले तोर कनिहा।
(बीच दोपहरी   पानी भरने जा रही हो , तुम्हारी  कमर  तो बांस  के कमानी  जैसी डोल  रही है )
  इसकी  हर  एक  पंक्ति में  छत्‍तीसगढ के अल्हड़ पन की झलक है ,जो की  अपनी सादगी और फक्कड़ता ,व्यंग्य  को प्रदर्शित करने की एक सहज  माध्यम  है।
बाम्हन बैरागी ला  सुपा में दिए धान ,
ओकर पोथी के पढ़इया ल लेगे भगवान।
यदि यह  प्रियतम की प्रणयातुर होकर  प्रियतमा  को याद करते हुए सन्‍नाटे को  चीरती  हुई पुकार है। तो तत्कालीन  परिस्थति को बयां करने का सशक्त  माध्यम भी है ? 

किसी ने लास्ट वर्ल्ड वॉर के समय को ध्यान में रखते हुए गाया  था -
 गोला  रे गोला  ,चांदी  के रे  गोला
 गोला  गिरगे सदर में, कांपत  है  रे चोला ,
गा ,  दन  दनादन गिरत हवे  बम के गोला
 लागथे रे  नाही बांचे  अब  रे  चोला

सुआ गीत  :- " तरी नारी न ना  रे ,न न  सूआ  न ,तरी नारी  नाना   हो 
                       तारी  नारी नाना हो ,
                       जाने झनि सुनी पावे बीरसिंग  राजा हो 
                        झनि सुनी पावे ,बीरसिंग  राजा। 
                        खन्ढरी ल हरहि , अउ भूँसा  ल भरही गो तरी नारी                                                                                                 नाना  हो  । "

 नारी के जीवन की विसंगतिओ  को दर्शाने वाला करुण गीत है। विशेष रूप से  गोंड जाति की नारियाँ दीपावली के अवसर पर आंगन के बीच में पिंजरे में बंद हुआ सुआ को प्रतीक बनाकर (मिट्टी का हरे रंग का  तोता) और एक खम्भे में  कलश रखकर  उसपर  दीपक जलाकर  उसके चारो ओर गोलाकार वृत्त में एक लय  के साथ ताली बजा कर नाचती गाती  घूमती जाती हैं।

 जहां नारी सुअना (तोता) की तरह पारिवारिक पिंजरें में  बंधी हुई है।और अपनी तुलना पिंजरे में बंद तोते से करती है।  इसालिए अगले जन्म में नारी जीवन पुन न मिले ,और तोते की भांति घूमे फिरे  ऐसी कामना करती है।इस सुआ  गीत में उनकी अपनी  व्यथा  झलकती है।
 तोते को जंगल ,पहाड़ में स्वछन्द  उड़ने वाला पवित्र  पक्छी  माना  जाता है। हिन्दू  इसमें भगवान का रूप देखते   है , इसलिए इसे  नही  मारते। और महिलाये इसके माध्यम से अपना सन्देश अपने पूर्व प्रेमी या माता पिता और भाई तक भेजना चाहती है।  गीत की पंक्तियों में   ऐसे ही बात  होती है।
 दीपावली के आगमन के  अवसर पर लोगो के घर - आंगन में जा कर ये   हरे रंग की साड़ी पहनी हुई  नाचती , गाती है। ग्रामवासी इसके बदले में उन्हें पैसे या अनाज़  भी देते है।
राऊत गीत :- नदी  तीर मा  बारी बखरी,,,,,,,,,,,,,,,हवओओओओ ,,फेर
                    खेत में लगाये धानजी ,,,,,,,,,,,,,हवओओओओ ,,,?
                     मोर गाव के रहवइया हा  चल दिस पाकिस्तान जी

 दिपावली केअवसर  में  हि   गोवर्धन पूजा के दिन  गौ  माता और अन्य खेती के काम में आने वाले जानवर को  सेवाई (गले में सुन्दर सा कौड़ियो और मोर पंख से सजा कर बना हुआ  हार नुमा  पटटा)  बांध कर ,व् उन्हें कांजी का भोजन कराकर ,फिर  उछलते ,कूदते हाथ में लाठी लेकर राऊत जाति के लोगो के द्वारा गाया जाने वाला  वीर-रस से युक्त पौरुष प्रधान गीत है जिसमें लाठियो द्वारा युद्ध करते हुए गीत गाया जाता है। इसमें क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी भाग लेते है।  इसमें तुरंत ही   दोहे बनाए जातें  है।दल के ही एक के द्वारा उची आवाज़ में  दोहे (हाना ) पढता है

,और फिर सभी गीत को दुहराते हुए उसका उत्तर देते हुए जोर से होiiiiiiiii रे की आवाज़ निकालते  हुए   गीत को पूरा करते हुए , ,  ढपली , नगाड़े  ,मंजीरा और तुतरी के धुन में , गोलाकार वत्त में धूमते हुए लाठी से युद्ध का अभ्यास भी  करते जाते हुए   एक दूसरे की लाठी से लाठी टकराते है। इस समय इनके द्वारा पहने गए वस्त्र मोर पंख  कौड़िओ से सजे धजे और सर में पगड़ी बंधी हुई रहती  है।ये इसी ड्रेस में बाजे गाजे के  अपने सभी परिचितों और देवी देवता के द्वार तक जाते है।

 इनके गीत के  प्रसंग व नाम पौराणिक से लेकर  बदलते हुए परिवेश में  सामजिक/राजनीतिक विसंगतियों पर भी  कटाक्ष करते हुए होते  है। गीत के बोल और देसी  गाड़ा  बाजे की धुन, लोगो के पैरो  को थिरकने हेतु   मज़बूर  कर देते है।

 " नदी  तीर मा  बारी बखरी,,,,,,,,,,,,,,,हव ओओओओ ,,
  खेत में लगाये धान जी ,,,,,,,,,,,,,हव ओओओओ ,,,?
   मोर गाव के रहवइया ह  चल दिस पाकिस्तान जी।"
    होओओओ  धमर धमर धम  और नाच शुरू
(यहा  पाकिस्तान का तात्पर्य  उसके परिचित का गाव छोड़कर शहर   में जा  बसना है)
नाती पूत ले घर भर जावै ,जियो लाख बरिस।
धन गोदानी भुइया पावों ,पावो हमर आशीस
इस दोहे के माध्यम से वह आशीस भी दे रहा है की आपका घर नाती -पोते से आबाद रहे ,आप लाखो वर्ष जीते हुए धन गायों  ,भूमि सम्पत्तियो से  परिपूर्ण भी रहे। हमारा आशिस आपके साथ है। जिसे स्वीकार करो।

 होली  गीत :-- बसन्तोस्तव  के स्वागत में फाल्गुन माह में रंग और अबीर के साथ होली की त्यौहार मनाया जाता है। इस समय आदमी गन्दा और अश्लील बोलने की स्वंतत्रता महसूस करता है.और यह उनके गीतों में भी झलकता है।   गीतों के भी बोल द्विअर्थी हो जाते है।  जैसे -
 छोटे देवरा  मोर बारि  में लगा दे रे  केवरा
कौन जात  है आरी बारी
कौन जात  है फुलवारी
कौन जात  है भाटा  बारी
कौन है  रे जो मज़ा मारी
 छोटे देवरा  मोर बारि  में लगा दे रे केवरा
(इसमें केवड़ा  आरी बारी शब्द  संकेतात्मक है ) अगले  गीत की बानगी  देखिये।
" मोर मुरली बजाये ,मोर बंशी बजाये ,,
 छोटे से श्याम कन्हैया
 छोट छोट रुखवा कदम के
 भुइया लहसे डार
 जा तरी बैठे कृष्णा कन्हैया
 गला लिए लिपटाय
 छोटे से श्याम कन्हैय्या
 मुख मुरली बजाये ,मोर बंशी बजाये । "
(यहा  पर श्याम कन्हैय्या , मुरली और कदम के पेड़  सांकेतिक है )
भक्ति गीत पंथी गीत  करमा गीत के बारे में अगली बार देखिये 

  • Vijay Kumar Sahu BundeliAnand Deo Tamrakar और 2 और को यह पसंद है.
  • Prakash Kumar bore ya basi ko jab aap Seeta tooma (goal matki jaisa 
  • tuma jisme hum loag pahle garmi me pani rakhne k liye pryog karte the) me 
  • basi ko rakh kar khel le jate the aur khate the jo Zira chatni(Aamari k Fool) k 
  • sath behad swad aur sitalta pradan karta thi,
  • basi me fragmentation kriya hot hain jab use rat me pani dal k dubaya jata hain 
  • jisse basi fayede mand rahta hain, Gaon me to Foote chana ke sath khaya jata tha jo garib k liye swad aur nutrition ka kam karta tha, 

    Dadariya me aaj bhi Hamare gramin chhetro me has-parihar, khusi, utsah 
  • aapne priya k viyog aur prakriti se samband ko darsata hain jo dhan bote nidai 
  • kudai aur mainjai ke samay krisi karyo me bhi gaya jata hain " Chanda rani la 
  • Churee mangeo, Churee radi tutge vo Zillo tore khatir, Chanda Rani Gari dehi
  •  Bijali tore khatir" "Maya dede maya lele maru pirit bhaye ka vo,"..................
  • DK Sharma


Saturday 13 December 2014

" मेरी पहली हवाई यात्रा "

 (बादलो के ऊपर जहा  और भी है )

देवेन्द्र कुमार शर्मा  सुन्दर नगर रायपुर

    हम लोगो ने बचपन से   अनेको  बार हवाई जहाज  को उड़ते  देखा   है , जब तक की वह  सिर के ऊपर से पुरी तरह से गुजर कर नज़र से ओझल  न  हो जाए।  लेकिन उस पर चढ़ने का स्वप्न  देखने की गलती मैंने  कभी भी  नहीं की थी  । बचपन में  समीप  से एक बार हवाई जहाज को माना  एरोड्रम से  उड़ते हुए  हुए देख कर   खुद को भाग्यशाली मानता   था  ।

 ये अलग बात है  की अब वो बात मुझे  कभी कभी  बचपना सा लगता है ।मेरी पहली हवाई यात्रा   कुछ ऐसी ही रही जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था और वो हो भी गई यूं ही अचानक। प्लेन देवता ने भी सोचा होगा डी के तू कब  तक  मुझमे बैठने से  बचेगा और एक बीमारी मुझे लगा दी ,डाक्टरों ने हमे  इतना डराया की मैंने भी सोचा कि अब ज्यादा दिन का मिहमान तू नही है ,मुझे भी लगा की भैय्ये मरने से पहले ही जिन्दा रहते पुष्पक विमान में चढ़ लू   ।  मरने के बाद क्या पता जमीं मार्ग से ले जाये। स्थिति ऐसी हो गई थी  की बस अब मुंबई तो  जाना ही है।  और जल्दी ही और कल ही ,चाहे तो  हवाई यात्रा भी चलेगी । मरता न क्या करता ,चलो भाई  . आपने  भी सुना होगा गुग्गुल की जड़ी बूटी दवाई के रूप में  काम आता ही है  । ये कैसा होता है कभी जानने की कोशिश तो  नहीं की। पर परिजनों ने वैसा ही कुछ मिलता जुलता नाम का उपयोग कर  गुग्गुल डाट काम  ईटरनेट में – फ्लाईट खोजने में उपयोग   किया। और मिला एक –  जेट एयर वेज़  । शब्दार्थ खोजा तो पता चला –जेट वायु मार्ग

 वैसे  जेटएयर वेज़ के प्रचार में नीली  ड्रेस में एयर होस्टेस एकदम परी सी लग रही थी ।  अब क्या था – हम  इस मुसीबत की दुनिया से काफी उपर, नील आकाश में  परियों के साथ यात्रा  करने वाले थे,शुरु हो गयी तैयारी । टिकट बुक करवाया ईटरनेट से ।

  किन्तु मन को लगा की मोबाइल में टिकट कैसे हो सकता है भाई मगर विश्वास नहीं हुआ कि बिना लाईन में लगे खुद से प्रिटिंग किया हूआ  अपना कागज टिकट कैसे हो सकता है ।  फिर खुद को ऐसे मनाया कि मेरे को ठग सकते है सभी को थोड़े ही न ठगेंगे  साथ में तो दुनिया से परिचित मेरे साले साहब    व् बेटा भी तो संग में है न  ।  कुछ भी हो ,मैंने समझदार यात्री बन  ,  पहले तो  टिकट के ऊपर  छपे नियम-कानुन को  ध्यान से पढ़ा । देखा एक ही बैग ले जाने को कहा है – उसकी लंबाई – चौड़ाई – ऊँचाई – भार, 35 किलो सब निर्धारित है । एक अलग से लैपटाप  भी आप  चाहे तो ले जा सकते है । चलो  ठीक है ।

 उस दिन फ्लाईट शाम को थी । मेरे  बीबी  जिसके पास निर्देशो का पुरी रेडीमेड पोटली रहती है को  मैनें न छेड़ी । क्युकि  पता था – अगर पोटली इकबार  खुली तो, शांति का आशा नहीं थी । और उस दिन को मैं पुरी शुभ यात्रा बनाना चाहता था । फिर किसी को जान बुझकर दुखी करके यात्रा थोड़े ही न बनता है । सो मैनें थोड़ी  ही   बात की, वो खुश और मैं भी खुश । बाई – बाई फिर आफलाईन ।हमारे बहुत सारे साथिओ  के लिए तो  हवाई यात्रा, आटो रिक्शा जैसा है  । मैं  सोचता था की एक बार खाली चढ़ तो लुँ, हवाई जहाज पर, अन्य हवाई यात्रिओ की तरह अपना भी जन्म सार्थक हो जाए ।
वैसे ही पहले बार ही मुंबई छोटे इंजीनियर  बेटे के  पोस्टिंग  के बाद जा रहा था – वो भी हवाई जहाज से । वहाँ घर पे सब  डॉक्टर  के  कथन  से – दुखी हो मेरे घंटे गिन रहे थे । मै भी सोच में  था कि  पता नही क्या हो सशरीर इसी हालत में  लौटूंगा की नही ,  खैर हम एयरपोर्ट पहुंचे पहूँचकर देखा तो सब स्टेन्डर्ड यात्री । ज्यादातर बढ़िया सुटकेश और बढ़िया बैग लेकर चलने वाले ।
 इधर हमारे  रेलवे ,और बस स्टेशन पर तो झोला वाले  या फिर  सस्ते सुटकेश व् बैग वाले  ही  खुब दिखते हैं,ठीक  भी है ,मैंने अपनी आँखों से कीमती  या  बढ़िया सुटकेश वालो को लूटते ,चोरी होते  हुए भी खूब देखा है मन में प्लान हो गया कि अगली बार के लिए एक हवाई यात्रा लायक सैमसोनाईट सुटकेश खरीदना होगा ,

 आखिर हमारे  भी तो कुछ  सम्मान  है की नही  । अभी जो भी , जैसा है, ठीक है।  खैर हमने भी अपना बैग का चेन आदि चेक कर  सामान जमा लिया। मेरी आदत खुद हि इस काम को करने की रहती है। ताकि बाद में असुविधा न हो।
पीयू  (सिस्टर इन लॉ की बेटी )जो कि  मुंबई में   इंजीनियर  है , हमेशा ही  प्लेन में ही  आती जाती रहती  है  ,ने फ़ोन में  बता दिया था कि पुरी जाँच पड़ताल होती है, सीट नम्बर भी वहीं मिलेगा इसलिए एक घंटा पहले  ही पहुंच जाना चाहिए । हम   घर से बिदा लेकर २० की. मी. दूर  विवेकानंद एरोड्रम में  पहुंच गए। एक सिक्योरिटी गार्ड ने बेटे के  हाथ में ई-टिकट देखकर आईडी कार्ड और टिकट चैक करने के बाद  कहा कि आप चाहें तो वहां( दूसरे गेट) से भी एंट्री कर सकते हैं। वहाँ जाकर देखा, बस फर्स्ट क्लास वेटिंग रुम जैसा कुर्सी की लाईन।

 और साफ सुथरा वातावरण।  मैंने पहली बार किसी भी एयरपोर्ट पर पहली बार कदम रखा था ।  हम   जहाँ “चेक इन” लिखा देखा –   खड़ा हो गए  । हम पुरा एक घंटे पहले पहुंचे  थे  ना इसलिए  लाईन  में नबंर एक  पर थे । पुरे बीस मिनट खड़े  रहे वहीं  पीछे मुड़ कर देखा तो लंबी लाईन लगी थी । मैं पुरा गौरवान्वित महसुस कर रहा था उस समय , नहीं तो मुझे एक बार लेट से स्टेशन पहूँचकर चलती गाड़ी में चढ़ने का बुरा अनुभव रहा है । पॉकेट से पैसे अलग साफ । चेक – इन शुरु हो गयी । मेरे सामने एक पट्टी  चलने लगी । एक स्टाफ ने डाल दिया मेरा बैग उस पट्टी पे ।  बेचारा बैग – बिना मालिक का चला गया, एक छोटी सी अँधेरी सुरंग  में ।

 मैंने  एक्स रे करवाया था दो सौ रुपये लगे थे । अरे वाह, और यहाँ सामान का एक्स रे भी फ्री । हमें बगल के दुसरे रास्ते से टिकट देखकर जाने दिया । साले साहब को   बैग  अंदर जाकर नहीं मिला ,मैं वहाँ खड़ा रहा । हमारे   पीछे खड़े कई महाशय अपना सुटकेश लेकर चले गये । उसके बाद दो लोग और  अपना सामान लेकर चले गये । अब  हमारा दिमाग ठनका – कुछ गड़बड़ हुआ है । उनका  बैग देखा तो जाँच करने वालों ने उठाकर रख लिया था । और उन्हें खड़ा देख जाँच करने वाला पुछा – “ये आपका बैग है क्या , पता चला है कि इसमे कोई ठोस चीज़ है ।” “अरे  यार, एक्स रे मशीन तो उस्ताद है “- मैनें सोचा । उन्होंने   कहा “टोर्च  हैं “। उसने  बैग खोलने को कहा – “चैक होगा “। फिर वे  संतुष्ट हो गये  कि ये   उग्रवादी (टाईप) नहीं है  । और  मुक्ति मिली । नही तो बैग से पैक्ड सामान को निकालकर फिर से डालना भी बड़ा कष्टकर होता है ।
 उनलोगों नें उसे पुरा सुरक्षा स्टीकर से सील कर  किया उधर मेरा बैग एक  ने वहीं पर ले लिया । देखा चली गयी बेचारी बैग – फिर एक रोलर  पे  चलती पट्टी में । अब   पारी आई शरीर  और ,मोबाइल के चेक की.मैं देख रहा था कि एक ट्रे में सब मोबाइल और पर्स तक निकाल के रख रहे हैं । रह गया हाथ में सिर्फ बेटे की  अपना हैडबैग। जिसका भी एक्स-रे किया जा चूका था।  ये गार्ड सिर्फ आईडी प्रुफ और बोर्डिंग पास चैक कर रहे थे। मेरे आईकार्ड और बोर्डिंग पास चैक होगया और जैसे ही मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की तभी मुझे एक गार्ड ने रोक दिया।
मुझे लगा कि जरूर से ही कोई बात होगी। पता चला कि नहीं आगे वालों की चैकिंग नहीं हुई है तो मुझे और मेरे पीछे की जनता को रोक दिया गया।निपट कर   हवाई अड्डे से सभी लोग अपना सामान (हैंडबैग) लेकर प्लेन पर  चढ़  रहे थे  ,  मैंने सोचा  किस्मत मेरी अगर तेज रही तो ही मिलेगी, खिड़की वाली सीट । पहली बार की यात्रा तो ठहरी न।  , खैर मेरे साइड खिड़की मिल गई।

खैर मैं भी हवाई जहाज पे जा रहा था जो की  ट्रेन की यात्रा से  काफी बेहतर है , अब  सीढ़ियां हटा ली गईं थी। एयरहोस्टेस जो कि उदघोषिता भी थी उसने सूचना दी कि थोड़ी देर में फ्लाइट उड़ने के लिए तैयार है और उदघोषणा बंद होगई।धीरे-धीरे विमान जोरो से   गड गड की आवाज़ करते हुए  बस  की तरह  सरकने लगा और रनवे तक पहुंच गया। विमान थोड़ा रुका और मैंने धरती को जी भरकर पास से देखा व्  अपने बगल में बांयी और की विंग को देखने लगा। विमान रनवे पर चल दिया फिर तेज आवाज़ के जरिए दौड़ने लगा। बस एक छोटे से हल्के झटके के साथ प्लेन  आसमान की तरफ बढ़ गया। धरती पीछे और नीचे छूटती जा रही थी और मैं लगातार नीचे देखता जा रहा था। पर ये क्या, प्लेन की लेफ्ट विंग नीचे की तरफ क्यों झुक रही है। मेरा तो कलेजा मुंह को ही आ रहा था और मैं नीचे देखने से डरने लगा।खैर थोड़ा ऊपर जाकर विमान ठीक से चलने लगा। और एक एयर होस्टेस को कई तरह से मुसीबतों से बचने के नियम कानून ..हाथ को व्यायाम की  मुद्रा में हिलाते देखा ..कुछ समझ आया कुछ नहीं . एहसास हो रहा था कि जैसे चढ़ाई में कुछ दिक्कत हुई है और अब वो समतल सड़क पर ठीक से चलने लगा है। और प्लेन में काफी आवाज़ हो रही थी। लेकिन ऊपर  से धरती को देखना का सुख मुझे बहुत ही प्रफुल्लित कर रहा था। साथ ही लग रहा था कि गूगलअर्थ में जो चित्र उभरते हैं वो सचमुच में ही काफी सही और जीवंत लगते हैं।नीचे धरती, उसके ऊपर बादल, उसके ऊपर हमारा विमान और हमारे विमान के ऊपर सिर्फ और सिर्फ साफ आसमान।  फिर  विमान परिचारिका आयी और अपने साथ  एक टेबल नुमा ट्रे लेकर  नास्ते की चीज लेकर  निकली और पूछा  कि  नाश्ता चाहिए क्या , और  पानी की  बोतल। लोगो ने  नाश्ता  लिया हमारी पहले ही  पेटपूजा हो गई थी , फ़िर वही परिचारिका आकर नाश्ते की प्लेट ले गयी, चूँकि नाश्ते की प्रक्रिया के लिये बहुत ही सीमित समय होता है, तो विमान की सारा स्टॉफ़ बहुत ही मुस्तैदी से कार्य कर रहा था। जैसे ही उन लोगों ने नाश्ते की प्लेट्स ली सभी से वैसे ही कैप्टन का मैसेज आ गया कि आप छत्रपति शिवाजी विमानतल पर उतरने वाले है और फ़िर मौसम की जानकारी दी गई। उससे पहले खिड़की से नजारा देखा तो पूरी मुंबई एक जैसी ही नजर आ रही थी, पहचान नहीं सकते थे कि कौन सी जगह ह

 सुदूर  फ्लैट की रंगबिरंगी  बत्तियों के बीच से उतरना भी इक  रोमांचक अनुभव रहा. मुम्बई एरोड्रम  में  लगता है कि हर 05 मिनट में प्लेन उड़ते और उतरते रहते  है .

  सिर्फ पौने दो घंटे में मैं मुंबई पहुंच गया। पूरी उड़ान के वक्त मैं एक अलग एहसास होता रहा जो कि बिल्कुल अलग था। खैर नीचे उतरते ही रनवे  से बस एरोड्रम के लिए   लग जाती है । वहा से सामान लेकर  निकले. और  वहा  पर मेरे छोटे बेटा जो कि टैक्सी लेकर प्रतीक्छा रत था  के  साथ आगे बढ़ लिये..,,,,,,,,,, ।

Tuesday 9 December 2014

माँ   बमलेश्वरी   मंदिर   डोंगरगढ़ 
देवेंद्रकुमारशर्मा,सुन्दरनगर,रायपुर,छत्तीसगढ़ 

डोंगरगढ़ भिलाई, दुर्ग और राजनांदगांव के रास्ते  से होते हुये रायपुर से 107 किलोमीटर की दूरी पर है। कोलकाता-मुंबई राष्ट्रीय  राजमार्ग से पच्चीस किलोमीटर  आगे से  दाये ओर  एक संकीर्ण घुमावदार एकल सड़क पर हरे भरे वनस्पति और हल्के जंगलों से  होते हुये वाहन जाता है। सीधे रेल के रास्ते से भी अनेकों  ट्रैन  के माध्यम  से भी पहुँचा जा सकता हैं। डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन जंक्शन की श्रेणी में आता है। यहां सुपर फास्ट ट्रेनों को छोड़कर सारी गाडियां रूकती हैं, लेकिन नवरात्रि में सुपर फास्ट ट्रेनें भी डोंगरगढ़ में रूकती है।  अपनी  निज़ी   गाड़ी  में रायपुर से डोंगरगढ़ तक 03 घण्टे में आराम से भी  पहुँचा  जाया जा सकता हैं ।दुर्ग  शहर से नागपुर जैन  टेम्पल के रास्ते बडाईटोला  ढारा क़स्बा से  होते हुए भी जा सकते है। डोंगरगढ़ राजनांदगांव ज़िले मुख्यालय में  एक तहसील मुख्यालय है। यहा पर मुख्य रूप से   दो मन्दिर  से हि इस क़स्बे  की प्रसिद्धता हैं।  एक पहाड़ी की चोटी  के उपर पर एक 1600 feet. की उचाई  पर  है  बड़ी बमलेश्वरी

 जो कि  मुख्य पर्यटन के केन्द्र हैं।  साथ-साथ मुख्य बमलेश्वरी मंदिर   पहाड़ी के  नीचे  समतल मैदान  में एक और , छोटी  माँ बमलेश्वरी मंदिर 1 /2  किमी  में जमीं सतह से थोड़े  उचे में स्थित   हैं । ये मंदिर नए रूप में निर्माणाधीन  है।  आज इस जगह  ने एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल का रूप ले लिया   है। समीप  ही मेला स्थल है।  मुख्य मंदिर परिसर में  और  इन मंदिरों में (Dashera के पूर्व ) कंवार  की नवरात्रि और चैत्र  (रामनवमी के दौरान) ग्रीष्म  ऋतू  के प्रारम्भ  के दौरान मंदिर की और  झुंड के  झुंड में लोग  पैदल अन्य  वाहन  ,रेल मार्ग  से छत्तीसगढ़ ,महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश ,ओड़िसा  की और से  व् अन्य राज्यो से  भी आसपास के लाखो तीर्थयात्रियों लोग यहाँ पहुँचते ही है।  प्रतिदिन   भी  लोग आते जाते रहते  है।     मंदिर  ही एक मात्र   कसबे का केंद्र बिंदु औरआकर्षण का केंद्र  हैं।  इस  तरह छत्तीसगढ़ में धार्मिक पर्यटन का  सबसे बड़ा केन्द्र पुरातन कामाख्या नगरी है जो पहाड़ों से घिरे होने के कारण पहले डोंगरी और अब डोंगरगढ़ के नाम से जाना जाता है। यहां ऊंची चोटी पर विराजित बगलामुखी मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर के श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केन्द्र बना हुआ है। सन 1964 में खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया था।

मन्दिर  मे  ऊपर जाने के  दो तरीके हैं। 1600 फुट की ऊंचाई में  1100 कदम -कदम चढ़ाई  सीढ़ी मार्ग से चढ़ कर या रज्जु मार्ग  ( रोपवे ट्रॉली ) से ऊपर जाने के रास्ते हैं। व्  पहले पैदल  भी दो रास्ते थे  ऊपर  जाने के सीढ़ी के अलावा एक दुर्गम  पहाड़ चट्टान  में कूद फांद  कर भी जिसके द्वारा भी  वर्ष ८० -८१  में हम लोग  जैसे तैसे नीचे की मंदिर की पीछे के मार्ग से चडे थे। शायद  इसे अब बन्द भी कर दिया गया है। वैसे डोंगर  का मतलब पहाड़ है जबकि गढ़  का मतलब किले से  है।इतिहासकारों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को कल्चूरी काल का पाया है लेकिन अन्य उपलब्ध सामग्री जैसे जैन मूर्तियां भी  यहां मिल चुकी हैं,सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्ति कला पर गोंड कला का प्रमाण परिलक्षित हुआ है।


 रोपवे गाड़ी से  नीचे  चढ़ते  व् उतरते  समय दूर- दूर  तक का  विहंगम  दृश्य दिखलाई पड़ता हैं।  यह कम से कम पांच मिनट की सवारी है। और इस दौरान  हमे  मंदिर की तरफ  उपर फहराता हुआ  ध्वज और त्रिशूल दिखने से  तथा  नीचे  1000  फीट गहरी खाई   की ओर  नज़र डालने से  एक अनोखी खुशी के साथ  साथ  भय भी उत्पन्न करता है। मंदिर के नीचे छीरपानी जलाशय है जहां यात्रियों के लिए बोटिंग की व्यवस्था भी है।सीढ़ियों के रास्ते भी मंदिर के परिसर  तक ऊपर पहुचने में  हमें  कठिन और सरळ चढ़ाई रास्ता  दोनों  हि  मिलता  हैं । और  आप चाहे  कितने  भी थके हुए क्यू  न हो  ऊपर मंदिर के प्राँगण  में  पहुँचते हि  शीतल  हवा  आपकी थकान  उतार  हि    देगी। और  एक नई ऊर्जा से आप ओत -प्रोत  हो जायेंगे।
रोपवे सोमवार से शनिवार तक सुबह आठ से दोपहर दो और फिर अपरान्ह तीन से शाम पौने सात तक चालू रहता है। रविवार को सुबह सात बजे से रात सात बजे तक चालू रहता है। नवरात्रि के मौके पर चौबीसों घंटे रोपवे की सुविधा रहती है।  बुजुर्ग यात्रियों के लिए कहारों की भी व्यवस्था पहले थी पर रोपवे हो जाने के बाद कहार कम ही हैं।
 किन्तु  ऊपर चढ़ाई के पहुँचने के रास्ते  में पीने के पानी ,छाया तथा  पुरे रास्ते दुकाने  सभी तरह की मिलेगी। यात्रियों के लिए रियायती दर पर भोजन की व्यवस्था भी रहती है। ये  अच्छी बात है क़ि   इस मन्दिर  में हर मौसम में आराम  के लिहाज़ से बनाये गये  विश्रामगृह हैं।  ह  रास्ते में बन्दरो  से  आपको सावधान  रहने  की आवश्यक्ता  है। पर्यटक  इन्हे खाने पीने  की चीज़  देकर इनकी आदत  बिगाड़  चुके हैं। और ये पर्स ,थैली आदि छीन  कर  भी भाग  जाते है। क्यूकि  इनके शिकार एक बार  हमलोग  भी हो चुके है।


मन्दिर के आसपास के प्राकृतिक पहाड़ियों वर्णन से परे सुंदर दिखता  है। और सीधी  रेलवे ट्रैक जो  मैदानों पर दूर तक  फैला है, मन्दिर के  नीचे  की और  देखने पर एक आश्चर्यजनक   परिदृश्य उत्पन्न  करता  है।  मैंने डोंगरगढ़ शहर में  मनभावन हरियाली की  कमी  को  महसूस किया हु । नगरवासियो  को कम से कम बरगद , पीपल या आम आदि के पेड़ लगा  कर इस कमी को जरूर दूर करना चाहिए। ये तो अच्छी ही बात है की

 आसपास के पहाड़ों चट्टानों  व् झील के नज़ारे अप्रत्याशित कल्पना के लिए कारण प्रदान करते हैं। और बरसात के दिनों में  एक अलग ही नज़ारे पैदा करते है। साथ ही दूर तक फैले चट्टानें ,पत्थरो का ढेर  भी अनेको कल्पना का केंद्र बनते है।  ,,,,,, ये    रॉक संरचनाये  मुझे  तो  हमेशा अजीब सा  भ्रम प्रदान करते हैं। और जब भी वहा  जाता हुँ  तो ये  कल्पनाओं  की दूनिया  में  मुझे  ले जाते  है।इसी तरह  की  दृश्य  भानुप्रतापपुर  से कांकेर  तक की बस  मार्ग में भी देखने को  मिलता है।


  किंवदंती है कि,एक स्थानीय राजा वीरसेन  निःसंतान था और कहा जाता है। उसने  अपने शाही पुजारियों के सुझावों से  देवताओं को पूजा कर विशेष  रूप से शिव पारवती जी की  करके मनौती मानी  । एक साल के भीतर, रानी वे मदनसेन  नाम एक पुत्र को जन्म दिया। राजा वीरसेन   ने इसे  भगवान शिव और पार्वती की एक वरदान मान उनकी  सम्मान में  मंदिर बनवाया । और मां बम्लेश्वरी देवी का यह मंदिर जाहिर वर्षों में महान आध्यात्मिक महत्व प्राप्त कर ली है।डोंगरगढ़ के बारे में अनेको कहानी लिखी गई है। जो की नेट में उपलब्ध है।अतः  इस प र मै  ज्यादा लिखना उचित नही समझता।  वैसे राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है।



डोंगरगढ़  की पहाड़ियों की प्राकृतिकता , कृत्रिम  निर्माण कर समाप्त किया जा रहा है.  साथ  ही पहाड़ी और आसपास  की जगह  पर कचरो का ढेर फैलता जा रहा है। जिसे की रोकने जान-जागरूकता  आवश्यक है। तथा चारो तरफ की पहाड़ी की आकार  ,व् खुबसूरती बिगाड़ने  में लगे है जिस पर शासन को अंकुश करना चाहिए ,नही तो वो दिन दूर नही रहेगा जबकि सिर्फ चारो और पक्के  भवन और गन्दगी  ही नज़र आये।
 यहा  पर अन्य  देखने योग्य  स्थान निम्न है -
विशाल बुद्ध प्रतिमा  डोंगरगढ़ में एक पहाड़ी पर बौद्ध धर्म के लोगों का तीर्थ प्रज्ञागिरी स्थापित है। यहां भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है। इसके साथ ही माँ रणचण्डी देवी का मंदिर है जिसे    टोनहिन

 बम्लाई भी कहा जाता है। शहर के इतिहास को जानने  वालो के अनुसार  के अनुसार इस मदिर में जादू -टोने की जांच की जाती है। वर्तमान में बाहरी  लोगो को ज्यादा  इस मंदिर के दर्शन को जाते हुए मैंने नही देखा।  ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है।

मंदिर  खुलने  की स्थिति
कार्यदिवस पर - 04:00-12:00
13:00-22:30
शनिवार और रविवार को - 5:00-10:00
कैसे पहुँचें
डोंगरगढ़ जिला मुख्यालय राजनांदगांव से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और अच्छी तरह से राजनांदगांव से बसों के साथ जुड़ा हुआ है। डोंगरगढ़ भी अच्छी तरह से रेल  गाड़ियों के साथ जुड़ा हुआ है। यह नागपुर से 170 किलोमीटर और रायपुर से 100 किलोमीटर की दूरी पर मुंबई-हावड़ा मुख्य लाइन पर है। निकटतम हवाई अड्डा माना  (रायपुर) में है।

मौसम यात्रा करने के लि

डोंगरगढ़ साल भर  बाहर  से भी  आकर  दौरा किया जा सकता है।

(चित्र  साभार  गूगल  से व् अन्य मित्रो से )