Monday 26 January 2015

 सर्कस का जादू क्या आज भी कायम है ... ?
देवेंद्रकुमारशर्मा ११३ सुन्दर नगर रायपुर 

मित्रो आज गूगल बाबा ही हमारे  दादा, नाना दादी नानी है। जिनसे ही आज सारी  बाते मालूम हो पाति है।  आज  कंप्यूटर युग  है   और हर चीज झटपट माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध है, तब भी किसी भी रंगारंग कार्यक्रम को  सीधे ही सामने बैठकर  और एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज कारनामे देखने का मजा ही कुछ और है।  फिर वो डांस का प्रोग्राम हो चाहे सिनेमा सर्कस ही क्यों न हो।
 सर्कस का नाम पढ़ते ही हमारे दिमाग में शेर-चीते-भालू के खेल से सजा शानदार टैंट में चल रहा खेल-तमाशा का  ध्यान आता है।और साथ में अगर हाथी, ऊंट, तोते, चिडियां और कुत्ते भी खेल दिखाने लगें तो आंखें आश्चर्य से खुली की खुली रह जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हो कि कभी भारतीय लोगों के मनोरंजन का फिल्म के बाद सबसे लोकप्रिय माध्यम सर्कस अब करीब-करीब बिन जानवरों का खेल दिखाता है? आजकल भी देश में कहि न कहि  सर्कस चल भी रहा है। यह तो  इन सर्कस चलाने वालों की हिम्मत ही है ,कि वह इस प्राचीन कला के माध्यम को हर तरह की परेशानी के बाद भी जीवित रखे हुए हैं।

‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के मालिक संजीव और दिलीप नाथ का कहना है की , ‘सर्कस चलाना बहुत ही  मेहनत का काम है। एक सर्कस में 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं। सबके रहने-सहने और खानपान की जिम्मेदारी सर्कस कंपनी की होती है। सभी कलाकार नहीं होते। पर वे एक-दूसरे से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे मोतियों की माला। कुछ का काम होता है तंबू लगाना, उखाड़ना व उनकी देखभाल करना, प्रचार प्रसार करना, तो कुछ लोग जानवरों की सेवा में लगे रहते हैं।
 खेल दिखाने वाले कलाकार तो होते ही हैं, परंतु उन्हें कब और क्या चाहिए और कई बार जब उनका शो खराब हो रहा होता है, तो कैसे जोकर व अन्य लोग उस शो को संभाल लेते हैं, यह देखते ही बनता है।’और जो की काबिलेतारीफ ही है।

भारत में सर्कस का प्रारम्भ 

 यदि कहा  जाये तो भारत में सर्कस के आदिगुरु होने का श्रेय  महाराष्ट्र के श्री विष्णुपंत छत्रे को है। वह कुर्दूवडी रियासत में घोड़े की देखभाल की   करते थे। उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना। 1879 में वह अपने राजा जी के साथ मुंबई में ‘रॉयल इटैलियन सर्कस’ में खेल देखने गए। वह पर  उसके मालिक ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि सर्कस में खेल दिखाना भारतीयों के बस की बात नहीं है। और  इस अपमान को छत्रे सह नहीं सके और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक साल के भीतर ही भारत की पहली सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ की नींव रखी और खेल दिखाना  चालू किया  । बाद में उनका साथ देने  केरल के कीलेरी कुन्नीकानन भी उनसे जुड़ गए । वह भारतीय मार्शल आर्ट ‘कालारी पायटू’ के मास्टर थे। उन्होंने सर्कस के कलाकारों को ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल खोला। बाद में जितने भी सर्कस भारत में शुरू हुए, उनके अधिकतर मालिक इसी स्कूल से सीखकर विशेष रूप से  सर्कस जगत में आए। इसीलिए ही उन्हें भारतीय सर्कस का पितामह माना जाता है। भारत के मशहूर सर्कसों में ग्रेट रॉयल सर्कस (1909), ग्रैंड बॉम्बे सर्कस 1920 (यही सर्कस आज ‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के नाम से जाना जाता है), ग्रेट रेमन सर्कस 1920, अमर सर्कस 1920, जेमिनी सर्कस 1951, राजकमल सर्कस 1958 और जम्बो सर्कस 1977 हैं।कमला सर्कस जो की एक जहाज दुर्घटना में डूब गया ,देश के आलावा दूसरे देश में भी अपना प्रदर्शन करता था।

 सर्कस की शुरुआत कैसे और क्यों हुई …?

प्राचीन रोम में भी सर्कस होने का प्रमाण मिलता है । बाद में जिप्सियों ने इस खेल को यूरोप तक पहुंचाया। इंग्लैंड में फिलिप एशले ने पहली बार लंदन में 9 जनवरी 1768 को सर्कस का शो दिखाया था। उसने घोड़ों के साथ कुत्तों के खेल को भी सर्कस में स्थान दिया। पहली बार दर्शकों को हंसाने के लिए उसने सर्कस में जोकर को जोड़ा। इंग्लैंड के जॉन बिल रिकेट्स अमेरिका में 3 अप्रैल 1793 को अपना दल लेकर पहुंचे और वहां के लोगों को सर्कस का अद्भुत खेल दिखाया। रूस के सर्कस बहुत अच्छे माने जाते हैं और वहां 1927 में मास्को सर्कस स्कूल की स्थापना हुई।
सर्कस और जानवर
प्राचीन काल से ही सर्कस से जानवर जुड़े हैं। इनके खेल दर्शक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। परंतु सर्कस की कठिन दिनचर्या और ट्रेनिंग जानवरों के लिए बड़ी तकलीफदेह होती है। इसी को लेकर सर्कस में जानवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा और पेटा सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जानवरों के सर्कस में प्रयोग पर पाबंदी लगने लगी। 1990 में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सर्कस में जंगली जानवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। तब से कुछ ही जानवर सर्कस में प्रयोग होते हैं और उन्हें भी बैन करने की मुहिम चलाई जा रही है। ग्रीस पहला यूरोपियन देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जानवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है।

जोकर की जिंदगी
 यदि आपने मेरा नाम जोकर फिल्म  देखा होगा तो जोकर के काले सफ़ेद सरे पक्क्ष्  से आप परिचित होंगे।

सर्कस में सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं  तो जोकरों के लिए ही । खासकर बच्चे इनका इंतजार करते रहते हैं कि ये कब मंच पर आएंगे। रंग-बिरंगे चेहरे, नकली नाक व बाल लगाकर सबको हंसाने वाले जोकर दो प्रोग्राम के बीच के टाइम में फिलर का काम करते हैं। इस समय में वो सबको खूब हंसाते हैं। कई लोगों की नकल करके, जोक सुनाके वे ऐसा करते हैं। कई बार तो इनके भी अलग कार्यक्रम होते हैं। आमतौर पर जोकर वे बनते हैं, जो शारीरिक विकास में पिछड़ जाते हैं और कद कम रह जाता है। बच्चों जैसे दिखने वाले ये जोकर कई बार साठ-साठ साल की उम्र तक के होते हैं। कई जोकर आम इनसान जितने भी होते हैं, पर तालियां तो छोटे कद वाले जोकर ही बटोर ले जाते हैं। इनका काम भी काफी मेहनतभरा होता है। शो के बाद ये काफी थक जाते हैं।

सर्कस पर किताबें
यूं तो सर्कस पर बहुत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन अगर तुम्हें मौका मिले तो एनिड ब्लाइटन की सर्कस सीरीज पर लिखी तीन किताबों को जरूर पढिम्एगा। ये हैं-‘मि. गिलियानोज सर्कस’, ‘हुर्राह फॉर द सर्कस’ और ‘सर्कस डेज एगेन’। हिंदी में संजीव का उपन्यास ‘सर्कस’ पढ़ सकते हैं। सर्कस में ट्रेनर रहे दामू धोत्रे की आत्मकथा वाली पुस्तक भी बहुत अच्छी है।
सर्कस एक नजर में

सर्कस शब्द सर्कल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है घेरा।
दुनिया का सबसे पुराना सर्कस प्राचीन रोम में था। आज से करीब 2500 वर्ष पहले बने इस सर्कस का नाम था—‘मैक्सिमम’।
भारत का पहला अपना सर्कस था—‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’। इसका पहला शो मुंबई में 20 मार्च 1880 को हुआ था।
तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका के द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक जगह से दूसरी जगह शो करने जाने के लिए दो पूरी ट्रेनों का उपयोग किया जाता है। इसके बेड़े में 100 से ज्यादा हाथी और कई अन्य तरह के जानवर शामिल हैं।
क्या आप भी सर्कस को बार बार देख कर उसे प्रोत्साहित नही  करना चाहेंगे ,....?




Thursday 8 January 2015

तुरतुरिया , कसडोल , माता सीता का आश्रय स्थल

देवेन्द्र कुमार शर्मा ,सुंदरनगर ,रायपुर

मुझे इस स्थल में अनेको बार जाने का मौका मिला है।  सर्वप्रथम  यहा  पर  मै  अपने  मित्र श्री नारद चौधरी जी के साथ उनके बुलेट से सिरपुर और बार नयापारा  शासकीय यात्रा  के दौरान पंहुचा हु। उस समय मुझे याद है  हमदोनो के रायपुर से  महासमुंद  और वहां  से  सिरपुर  होते हुए कसडोल जाते समय रास्ते के   पुल - पुलियो में   तेज वर्षा की वजह से बाढ़  आ गए थे,और  हम दोनों को सिरपुर  केपुरानेविश्रामगृह में हि  रात व्यतीत  करना पड़ा  था। आज छत्तीसगढ़ का नाम  पुरातात्विक सम्पदा  से भरपूर  सिरपुर आदि के कारण  भारत  में ही नही बल्कि  विश्व मे भी अपनी एक अलग   स्थान  बनाता  जा  रहा  है।और सुबेरे मौसम खुलने पर जैसे तैसे रास्ते में  रूककर  तुरतुरिआ  को  देखते हुए कसडोल पहुंचे थे। वैसे श्री चौधरी  कसडोल से  20 ,25  km  दूर  बया  के पास  सोनपुरी ग्राम   के  ही रहने वाले है ,किन्तु इस स्थल में वे  पहली बार मेरे साथ ही पहुंचे थे।
  वैसे  तुरतुरिया रायपुर जिलासे 84 किमी एवं बलौदाबाजार जिला से 29 किमी दूर कसडोल तहसील से १२ किमी दूर प०ह्०न्० ४ बोरसी से ५किमी दूर और् सिरपुर से आने पर   23 किमी की दूरी पर   घोर वन प्रदेश के अंतर्गत  स्थित है। तब तो  मार्ग कच्चे और   जंगल वाले थे।  अब  पक्के मार्ग बन चुके है।

  यह   स्थान आसपास के छेत्र  में   सुरसुरी गंगा के नाम से भी प्रसिद्ध है तथा  प्राकृतिक दृश्यो से भरा हुआ एक मनोरम जगह  है जो कि  चारो और  से जंगल पहाडियो से घिरा हुआ है। इसके  समीप ही छत्तीसगढ़  का प्रसिद्ध अभ्यारण बारनवापारा   भी स्थित है। यहा  पर  अनेको  प्रकार के  वन प्राणी  ,फ़्लोरा व् फौना मिलते है। वैसे  तुरतुरिया बहरिया नामक गांव के समीप बलभद्री नाले पर स्थित है। एक बार  जब हम लोग जीप से सुबेरे के  समय यह पहुंचे थे ,तो नाले के आसपास  गौर ,हिरण ,भालू आदि  वन प्राणी  भी हमे भी  देखने को मिले थे।  किवदंती  है कि त्रेतायुग मे महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यही पर था और यही जगह  लवकुश की भी जन्मस्थली थी।

  इस स्थल का नाम तुरतुरिया होने का कारण  शायद यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानो के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमे से उठने वाले बुलबुलो के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है।

 इसका इक जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड मे गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड मे यह जल गिरता है वहां पर एक गोमुख बना दिया गया है जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनो ओर दो प्राचीन पाषाण   प्रतिमाए किसी वीर की स्मृती में स्थापित है जिसमे  कि इक  हाथ में तलवार लेकर  सिंह  को   मारते हुए हुए खड़ाहै और दूसरी मूर्ति जानवर से लड़ाई करता हुआ  उसकी गर्दन को मरोड़ता  हुआ  है। यही पर  विष्णु जी की भी दो प्राचीन  मूर्तीया  है।   जिनमे से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति मे है तथा दूसरी प्रतिमा मे विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है।  इस स्थान पर शिवलिंग भी खुदाई  आदि में भी  मिलते रहते  है..  इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा मे बिखरे दिखते  है जिनमे कलात्मक खुदाई किया गया है। जिससे लगता है की यह स्थल पूर्व में विकसित रहा होगा।  इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन  शिलालेख और  कुछ प्राचीन बुध्द की प्रतिमाए भी यहां स्थापित है।  यह  स्थल  बौध्द, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित  संप्रदायो की कभी  मिलीजुली संस्कृति रही होगी ऐसा प्रतीत होता है । समीप  ही नारायणपुर , शिवरीनारायण वैष्णव व्  शैव  धर्म के  धार्मिक स्थल  व् सिरपुर  बौध्द संस्कृति का भी  केन्द्र रहा होगा। आध्यात्मिक व्  पुरातात्विक  ये  स्थल इस बात को बल भी देती है।  ऎसा माना जाता है कि यहां कभी महिला  बौध्द विहार भी  थे जिनमे बौध्द भिक्षुणियो का निवास था। समीप ही  सिरपुर के  होने के कारण यह माना जा सकता है की  कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का भी  केन्द्र रहा होगा। विशेषज्ञों ने  ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओ का समय 8-9 वी शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनो की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है।  यहां पूष माह मे तीन दिवसीय मेला लगता है जिसमे  बडी संख्या मे आसपास के ग्रामवासी आते है। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटको को अपनी ओर खींचता रहता  है अक़्सर पिकनिक  मनाने भी लोग आते रहते  है।
माता सीता का आश्रय स्थल

 इस जगह  के विषय में कहा जाता है कि लंका विजय से वापस आने के बाद   श्रीराम द्वारा  माता सीता  को त्याग दिये जाने पर माता सीता  को   इसी स्थान पर वाल्मीकि  मुनि जी ने अपने आश्रम में  उन्हें आश्रय दिया  था। और उनके पुत्र  लव-कुश का भी जन्म यहीं पर हुआ   माना  जाता है ।  महर्षि वाल्मीकि को रामायण के रचियता भी माना जाता है. और इस लिए  यहहिन्दुओं की अपार श्रृद्धा व भावनाओं का केन्द्र भी माना जा सकता  है



पुरातात्विक महत्त्व
सन 1914 ई. में सर्वप्रथम  तत्कालीन अंग्रेज़ कमिश्नर एच.एम. लारी ने इस स्थल के इतिहास  को समझ  यहाँ पर पुरातात्विक खुदाई करवाई, जिसमें अनेक मंदिर और सदियों पुरानी मूर्तियाँ प्राप्त हुयी थीं। यहाँ वर्तमान में  पर कई मंदिर बनते जा रहे  है। नज़दीक ही  एक धर्मशाला भी  बना हुआ है।
मातागढ़' नामक मंदिर
यहँ पर 'मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है, जहाँ पर महाकाली विराजमान हैं। नदी के दूसरी तरफ़ एक ऊँची पहाडी है। इस मंदिर पर जाने के लिए पगडण्डी के साथ सीड़ियाँ भी बनी हुयी हैं।मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है जहाँ पर महाकाली जी  स्थापित  हैं। मातागढ़ में कभी बलि प्रथा होने के कारण बंदरों की बलि चढ़ाई जाती थी, लेकिन अब पिछले कई सालों यह बलि प्रथा बंद कर दी गई है। अब केवल सात्विक प्रसाद ही चढ़ाया जाता है। लोक  मान्यता है कि मातागढ़ में एक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम तथा आश्रम जाने के मार्ग में ही  जानकी कुटिया है,जहा ही  सीता जी रहती थी।
मैंने पाया की वर्तमान में यह पर मंदिर के आलावा अन्य सामान्य सुविधा  खाने -पीने की वस्तुये   मेला के समय को छोड़कर अनुप्लब्ध  ही रहता है। अतः आप आते है तो पूरी व्यस्था के साथ ही आवे। किन्तु यहाँ  पर आवै  तो गंदगी न फैलावे यह ध्यान में रखे  ।
 (चित्र  गूगल से साभार  व् अन्य ब्लॉगर के सहयोग से  )