Saturday 7 March 2015


 वन्दे मातरम Vs जन गण मन

 देवेन्द्र कुमार शर्मा ,  सुन्दरनगर , रायपुर  ,छत्तीसगढ़ 


आदरणीय दोस्तों, आज मैं वन्दे मातरम और जन गण मन की कहानी आप लोगों के सामने लाया हूँ उम्मीद है कि आप लोगों को पसंद आएगी। वन्दे मातरम Vs जन गण मन। सबसे
 पहले वन्दे मातरम की कहानी। ये वन्दे मातरम नाम का जो गान है जिसे हम राष्ट्रगान के रूप में जानते हैं उसे बंकिम चन्द्र चटर्जी ने 7 नवम्बर 1875 को लिखा था। बंकिम चन्द्र चटर्जी बहुत ही क्रन्तिकारी विचारधारा के व्यक्ति थे।
देश के साथ-साथ पुरे बंगाल में उस समय अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आन्दोलन चल रहा था और एक बार ऐसे ही विरोध आन्दोलन में भाग लेते समय इन्हें बहुत चोट लगी और बहुत से उनके दोस्तों की मृत्यु भी हो गयी। इस एक घटना ने उनके मन में ऐसा गहरा घाव किया कि उन्होंने आजीवन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का संकल्प ले लिया उन्होंने। बाद में उन्होंने एक उपन्यास लिखा जिसका नाम था "आनंदमठ", जिसमे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बहुत कुछ लिखा, उन्होंने बताया कि अंग्रेज देश को कैसे लुट रहे हैं, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से कितना पैसा ले के जा रही है, भारत के लोगों को वो कैसे मुर्ख बना रहे हैं, ये सब बातें उन्होंने उस किताब में लिखी। वो उपन्यास उन्होंने जब लिखा तब अंग्रेजी सरकार ने उसे प्रतिबंधित कर दिया। जिस प्रेस में छपने के लिए वो गया वहां अंग्रेजों ने ताला लगवा दिया।
तो बंकिम दा ने उस उपन्यास को कई टुकड़ों में बांटा और अलग-अलग जगह उसे छपवाया औए फिर सब को जोड़ के प्रकाशित करवाया। अंग्रेजों ने उन सभी प्रतियों को जलवा दिया फिर छपाऔर फिर जला दिया गया, ऐसे करते करते सात वर्ष के बाद 1882 में वो ठीक से छ्प के बाजार में आया और उसमे उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसने पुरे देश में एक लहर पैदा किया। शुरू में तो ये बंगला में लिखा गया था, उसके बाद ये हिंदी में अनुवादित हुआ और उसके बाद, मराठी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओँ में ये छपी और वो भारत की ऐसी पुस्तक बन गया जिसे रखना हर क्रन्तिकारी के लिए गौरव की बात हो गयी थी।इसी पुस्तक में उन्होंने जगह जगह वन्दे मातरम का घोष किया है और ये उनकी भावना थी कि लोग भी ऐसा करेंगे। बंकिम बाबु की एक बेटी थी जो ये कहती थी कि आपने इसमें बहुत कठिन शब्द डाले है और ये लोगों को पसंद नहीं आयेगी तो बंकिम बाबु कहते थे कि अभी तुमको शायद समझ में नहीं आ रहा है लेकिन ये गान कुछ दिन में देश के हर जबान पर होगा, लोगों में जज्बा पैदा करेगा और ये एक दिन इस देश का राष्ट्रगान बनेगा। ये गान देश का राष्ट्रगान बना लेकिन ये देखने के लिए बंकिम बाबु जिन्दा नहीं थे लेकिन जो उनकी सोच थी वो बिलकुल सहीसाबित हुई| 1905 में ये वन्दे मातरम इस देश का राष्ट्रगान बन गया।
1905 में क्या हुआ था कि अंग्रेजों की सरकार ने बंगाल का बटवारा कर दिया था। अंग्रेजों का
 एक अधिकारी था कर्जन जिसने बंगाल को दो हिस्सों में बाट दिया था, एक पूर्वी बंगाल और एक पश्चिमी बंगाल। इस बटवारे का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये था कि ये धर्म के नाम पर हुआ था, पूर्वी बंगाल मुसलमानों के लिए था और पश्चिमी बंगाल हिन्दुओं के लिए, इसी को हमारे देश में बंग-भंग के नाम से जाना जाता है। ये देश में धर्म के नाम पर पहला बटवारा था उसके पहले कभी भी इस देश में ऐसा नहीं हुआ था, मुसलमान शासकों के समय भी ऐसा नहीं हुआ था।
खैर ...............इस बंगाल बटवारे का पुरे देश में जम के विरोध हुआ था, उस समय देश के तीन बड़े क्रांतिकारियों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पल ने इसका जम के विरोध किया और इस विरोध के लिए उन्होंने वन्दे मातरम को आधार बनाया।और 1905 से हर सभा में, हर कार्यक्रम में ये वन्देमातरम गाया जाने लगा। कार्यक्रम के शुरू में भी और अंत में भी। धीरे धीरे ये इतना प्रचलित हुआ कि अंग्रेज सरकार इस वन्दे मातरम से चिढने लगी। अंग्रेज जहाँ इस गीत को सुनते, बंद करा देते थे और और गाने वालों को जेल में डाल देते थे, इससे भारत के क्रांतिकारियों को और ज्यादा जोश आता था और वो इसे और जोश से गाते थे। एक क्रन्तिकारी थे इस देश में जिनका नाम था खुदीराम बोस, ये पहले क्रन्तिकारी थे जिन्हें सबसे कम उम्र में फाँसी की सजा दी गयी थी।
मात्र 14 साल की उम्र में उसे फाँसी के फंदे पर लटकाया गया था और हुआ ये कि जब खुदीराम बोस को फाँसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था तो उन्होंने फाँसी के फंदे को अपने गले में वन्दे मातरम कहते हुए पहना था। इस एक घटना ने इस गीत को और लोकप्रिय कर दिया था और इस घटना के बाद जितने भी क्रन्तिकारी हुए उन सब ने जहाँ मौका मिला वहीं ये घोष करना शुरू किया चाहे वो भगत सिंह हों, राजगुरु हों, अशफाकुल्लाह हों, चंद्रशेखर हों सब के जबान पर मंत्र हुआ करता था। ये वन्दे मातरम इतना आगे बढ़ा कि आज इसे देश का बच्चा बच्चा जानता है। कुछ वर्ष पहले इस देश के सुचना विभाग (Information bureau) ने एक सर्वे कराया जिसमे देश के लोगों से ये पूछा था कि देश का कौन सा गीत सबसे पसंद है आपको, तो सबसे ज्यादा लोगों ने वन्दे मातरम को पसंद किया था और फिर इसी विभाग ने पाकिस्तान और बंग्लादेश में यही सर्वे कराया तो वहां भी ये सबसे लोकप्रिय पाया गया था। इंग्लैंड की एक संस्था है बीबीसी उसने भी अपने सर्वे में पाया कि वन्दे मातरम विश्व का दूसरा सबसे लोकप्रिय गीत है।
जन गण मन की कहानी
सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करता था। सन 1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये। इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया। रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा।
उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे, उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहे। उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था। और खुद रविन्द्र नाथ टैगोर की बहुत सहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए। रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा उसके बोल है "जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता"। इस गीत के सारे के सारे शब्दों में अंग्रेजी राजा जोर्ज पंचम का गुणगान है, जिसका अर्थ समझने पर पता लगेगा कि ये तो हकीक़त में ही अंग्रेजो की खुशामद में लिखा गया था।
इस राष्ट्रगान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है "भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है। हे अधिनायक (Superhero) तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो। तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महारास्त्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदिया जैसे यमुना और गंगा ये सभी हर्षित है, खुश है, प्रसन्न है , तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है। तुम्हारी ही हम गाथा गाते है। हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो ) तुम्हारी जय हो जय हो जय हो। "
जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गाया गया। जब वो इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। क्योंकि जब भारत में उसका इस गीत से स्वागत हुआ था तब उसके समझ में नहीं आया था कि ये गीत क्यों गाया गया और इसका अर्थ क्या है। जब अंग्रेजी अनुवाद उसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की। वह बहुत खुश हुआ। उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके (जोर्ज पंचम के) लिए लिखा है उसे इंग्लैंड बुलाया जाये। रविन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए। जोर्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था।
उसने रविन्द्र नाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। तो रविन्द्र नाथ टैगोर ने इस नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया। क्यों कि गाँधी जी ने बहुत बुरी तरह से रविन्द्रनाथ टेगोर को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था। टैगोर ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक गीतांजलि नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि नामक रचना के ऊपर दिया गया है। जोर्ज पंचम मान गया और रविन्द्र नाथ टैगोर को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना के ऊपर नोबल पुरस्कार दिया गया।
रविन्द्र नाथ टैगोर की ये सहानुभूति ख़त्म हुई 1919 में जब जलिया वाला कांड हुआ और गाँधी जी ने लगभग गाली की भाषा में उनको पत्र लिखा और कहा क़ि अभी भी तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरेगा तो कब उतरेगा, तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए ? फिर गाँधी जी स्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और बहुत जोर से डाटा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अंध भक्ति में डूबे हुए हो ? तब जाकर रविंद्रनाथ टैगोर की नीद खुली। इस काण्ड का टैगोर ने विरोध किया और नोबल पुरस्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया। सन 1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वो अंग्रेजी सरकार के पक्ष में था और 1919 के बाद उनके लेख कुछ कुछ अंग्रेजो के खिलाफ होने लगे थे।
रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और ICS ऑफिसर थे। अपने बहनोई को उन्होंने एक पत्र लिखा था (ये 1919 के बाद की घटना है) । इसमें उन्होंने लिखा है कि ये गीत 'जन गण मन' अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है। लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाए क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे। 7 अगस्त 1941 को रबिन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ये पत्र सार्वजनिक किया, और सारे देश को ये कहा क़ि ये जन गन मन गीत न गाया जाये।
1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी। लेकिन वह दो खेमो में बट गई। जिसमे एक खेमे के समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे और दुसरे खेमे में मोती लाल नेहरु थे। मतभेद था सरकार बनाने को लेकर। मोती लाल नेहरु चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजो के साथ कोई संयोजक सरकार (Coalition Government) बने। जबकि गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है। इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया। कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए। एक नरम दल और एक गरम दल।
गरम दल के नेता थे लोकमान्य तिलक जैसे क्रन्तिकारी। वे हर जगह वन्दे मातरम गाया करते थे। और नरम दल के नेता थे मोती लाल नेहरु (यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि गांधीजी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो किसी तरफ नहीं थे, लेकिन गाँधी जी दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे क्योंकि गाँधी जी देश के लोगों के आदरणीय थे)। लेकिन नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे। उनके साथ रहना, उनको सुनना, उनकी बैठकों में शामिल होना। हर समय अंग्रेजो से समझौते में रहते थे। वन्देमातरम से अंग्रेजो को बहुत चिढ होती थी। नरम दल वाले गरम दल को चिढाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत "जन गण मन" गाया करते थे और गरम दल वाले "वन्दे मातरम"।
नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को ये गीत पसंद नहीं था तो अंग्रेजों के कहने पर नरम दल वालों ने उस समय एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को वन्दे मातरम नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) है। और आप जानते है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी है। उस समय मुस्लिम लीग भी बन गई थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे। उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि जिन्ना भी देखने भर को (उस समय तक) भारतीय थे मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे उन्होंने भी अंग्रेजों के इशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्दे मातरम गाने से मना कर दिया। जब भारत सन 1947 में स्वतंत्र हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीति कर डाली। संविधान सभा की बहस चली। संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होंने बंकिम बाबु द्वारा लिखित वन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने पर सहमति जताई।
बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना। और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु। उनका तर्क था कि वन्दे मातरम गीत से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है इसलिए इसे नहीं गाना चाहिए (दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचती थी)। अब इस झगडे का फैसला कौन करे, तो वे पहुचे गाँधी जी के पास। गाँधी जी ने कहा कि जन गन मन के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूँ और तुम (नेहरु ) वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये। तो महात्मा गाँधी ने तीसरा विकल्प झंडा गान के रूप में दिया "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा"। लेकिन नेहरु जी उस पर भी तैयार नहीं हुए।
नेहरु जी का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन गन मन ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है। उस समय बात नहीं बनी तो नेहरु जी ने इस मुद्दे को गाँधी जी की मृत्यु तक टाले रखा और उनकी मृत्यु के बाद नेहरु जी ने जन गण मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गया जबकि इसके जो बोल है उनका अर्थ कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते है, और दूसरा पक्ष नाराज न हो इसलिए वन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बना दिया गया लेकिन कभी गया नहीं गया। नेहरु जी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे, मुसलमानों के वो इतने हिमायती कैसे हो सकते थे जिस आदमी ने पाकिस्तान बनवा दिया जब कि इस देश के मुसलमान पाकिस्तान नहीं चाहते थे, जन गण मन को इस लिए तरजीह दी गयी क्योंकि वो अंग्रेजों की भक्ति में गाया गया गीत था और वन्देमातरम इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था।
बीबीसी ने एक सर्वे किया था। उसने पूरे संसार में जितने भी भारत के लोग रहते थे, उनसे पुछा कि आपको दोनों में से कौन सा गीत ज्यादा पसंद है तो 99 % लोगों ने कहा वन्देमातरम। बीबीसी के इस सर्वे से एक बात और साफ़ हुई कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय गीतों में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम है। कई देश है जिनके लोगों को इसके बोल समझ में नहीं आते है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय है उससे एक जज्बा पैदा होता है।तो ये इतिहास है वन्दे मातरम का और जन गण मन का।
इतने लम्बे पत्र को आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद्।

Friday 27 February 2015

  कैलाश गुफा जशपुर जिला की यात्रा 


मै वर्ष २०१३ में गर्मी के मौसम  में रायपुर से  शासकीय कार्यवश अम्बिकापुर नगर गया था।  मुझे घूमने का शौक है ,मैंने वहा  पर  लोगो से आसपास के घूमने की जगह की जानकारी ली। लोगो ने मैनपाट ,सामरीपाट  कैलाशगुफा आदि जगह की जानकारी दी।श्री नेताम जी मेरे मित्र है , जो की वर्तमान में पंचायत ट्रेनिंग सेंटर में फेकल्टी मेंबर के रूप में कार्यरत है ने मुझे अपने साथ अगले दिन  कैलाश गुफा देखने  चलने को  आग्रह किया। जगह की खासियत पूछने पर इस जगह के बारे में उन्होंने बताया कि   अम्बिकापुर नगर से पूर्व दिशा में 60 किमी. पर स्थित सामरबार नामक स्थान है,



 जहां पर प्राकृतिक वन सुषमा के बीच कैलाश गुफा स्थित है। इसे परम पूज्य संत रामेश्वर गहिरा गुरू जी जिनका उस छेत्र में काफी सम्मान था,  नें पहाडी चटटानो को तराश कर निर्मित करवाया है। यहाँ  महाशिवरात्रि पर विशाल मेंला लगता है। इसके दर्शनीय स्थल गुफा निर्मित शिव पार्वती मंदिरबाघ माडाबधद्र्त बीरयज्ञ मंड्पजल प्रपातगुरूकुल संस्कृत विद्यालयगहिरा गुरू आश्रम है।
 इस जगह का विवरण जानने  के लिए लगा सुचना फलक  :-

तब मुझे भी ख्याल आया की इस जगह की तारीफ जब मै रायगढ़ में  पदस्थ था तो भी अनेको   मित्रो ने की  , किन्तु मै यहां  आ  नही पाया था।  दूसरे दिन  जीप से श्री नेताम और उनके  एक और मित्र के साथ चल पड़े ,रास्ते काफी सुहावने थे। कहि कहि तेज़ हवा के झोको से ख्याल आता की ये जगह पवन चक्की या इनसे ऊर्जा पैदा कर उसका उपयोग किया जा सकता है। कुछ जगह छत्तीसगढ़ शासन की पहल भी इस दिशा में दिखाई दी।  


 वैसे    जशपुर  जिला के  ब्लॉक मुख्यालय  बागीचा   से यह स्थान   लगभग 120 किलोमीटर दूर है। यह स्थान जशपुर जिले को पर्यटन के क्षेत्र में अलग पहचान देने वाला प्रमुख दर्षनीय स्थल है। कैलाश गुफा को  पहाड़ में चट्टानों को  मात्र 27 दिनों में खुदाई और  काटने से बनाया गया है। समीपस्थ ग्राम सामरबार  में  संस्कृत महाविद्यालय  है। यह हमारे देश में   दूसरा संस्कृत महाविद्यालय   है।  जो की श्री रामेश्वर गहिरा गुरू जी की प्रेरणा से  निर्मित है।  





बगीचा बतौली मुख्य सड़क के बाद कैलाश गुफा पहुंचने वाली 14 कि.मी. की उबड़ खाबड़ सड़क पर जगह जगह नुकीले पत्थर और गड्ढो के चलते हमे  यहॉं  पहुंचने में दिक्कते तो हो रही थी ,पता नही इस सड़क को क्यों नही बनाया गया है।  बगीचा बतौली की पक्की सड़क छोड़ने के बाद ग्राम मैनी से गुफा पहुंचने के लिए कच्ची सड़क पर पत्थरों की भरमार और बड़े बड़े गड्ढों के चलते कैलाश गुफा पहुंचने से पहले ही हमारा  मन खिन्न सा  हो गया ।जशपुर जिले को पर्यटन के क्षेत्र में अलग पहचान देने वाला यह  स्थल कैलाश गुफा तक पहुंचने वाली सड़क की बदहाली  के चलते ही शायद गर्मी के दिनों में भी यह स्थान सुनसान ही था।  महज 14 कि.मी.की दूरी को दो घंटो में तय करने से बाहर का सैलानी इधर दूसरी बार आने का नाम नहीं लेते  है। बीच रास्ते में वाहन खराब होने के बाद दूर दूर तक गाव नही होने से  मदद मिलने की उम्मीद भी  नहीं रहती  है। 

अंबिकापुर  से यहॉं  पहुंचे मेरे साथ के लोगो  ने बताया कि इस धार्मिक और रमणीय स्थल पर वे एक दशक पहले आए थे।उस समय यहॉं  की कच्ची सड़क की हालत आज की तुलना में  काफी अच्छी थी। किन्तु अभी तो जीप को भी सम्हाल कर चलाना पड़  रहा था। मुरम जैसी लाल मिटटी वाली भूमि आलू ,टमाटर की खेती के लिए प्रसिद्ध  है। 
\किन्तु  कैलाश गुफा के समीप पहुचने पर चारो ओर ऊंची पहाड़ियां तथा दूर दूर तक फैली हरियाली के साथ  झर झर  झरते  झरनों का रमणीय दृष्य को देखते ही हमारी  सारी  थकान उतर गयी  यहाँ पर सुन्दर   झरने लगभग ४० फ़ीट ऊपर से गिरते और उची उची पहाड़ो के बीच  घने दरख्तो के बीच से बहते हुए  और केले ,आम  के  काफी तादाद में लगे  वृक्ष यहाँ की  सुंदरता और आकर्षण बढ़ा रहे हैं। कैलाश गुफा में  पहाड़ों  को काटकर बनाये गए गुफा वाले कमरो जिसके बाहर की दिवार में टपकते पानी की बुँदे और इसमें  स्थापित प्राचीन शिव मंदिर का आकर्षण के चलते भी यह पर्यटन स्थल अब  दूर दूर तक अपनी पहचान बना चुका है। बताते है की यहां  पर अनेको दुर्लभ जड़ी बूटी पाई जाती है।  यहॉं  पर सैलानियों की सुविधा पर  काफी ध्यान  देने की आवश्यकता है। जगह के सुनसान होने के कारण कैलाश गुफा आश्रम के पुजारी का कहना था कि इस स्थल पर आवागमन के साधन का अभाव तथा सड़कों की दुर्दषा के चलते सैलानियों की भीड़ पर विपरीत असर पड़ा है। कैलाशगुफा के आस पास रेस्ट हाउस बना कर इस स्थल को विकसित किया जा सकता है। शासन को इस दिशा  में सार्थक प्रयास करने  चाहिए। 



 कैलाश गुफा का प्रमुख   प्राचीन शिव मंदिर के आसपास काले बन्दरों का उत्पात भी बढ़ गया है। इस रमणीय स्थल पर प्रमुख आकर्षण का केन्द्र के रूप में काफी उंचाई से गिरने वाला झरना को माना जाता था। इन दिनों लगभग 40 फीट की ऊँचाई से गिरने वाली पानी की मोटी धारा भी अब लुप्त होकर यहॉं  पानी का पतला झरना ही रह गया है। किन्तु यहॉं पर पत्थरों में काई और कचरे की भरमार रहने से कोई भी सैलानी यहॉं  नहाने का आनंद नहीं ले पाता है। मेरे ड्राइवर ने भी  ट्यूबवैल में नहाना पसंद किया। ,वहां के स्थानीय लोगो से  हमने केले और आम खरीद कर खाए ,वहाँ के आम काफी मीठे है  और किसी भी प्रकार के अन्य नास्ते सामग्री  वहां  उपलब्ध नही थे।  हम लोगो ने  कैलाश गुफा में व्यस्थाके आभाव के  चलते   जल्द से जल्द अँधेरा होने से पहले  वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझे । क्युकी यहाँ  पर जंगली जानवर भी आते रहते है। 

    Devendra Kumar Sharma
113 ,sundarnagar ,Raipur ,chattisgadh

Sunday 15 February 2015

 जादू -टोना  करने वालो की भूमि जब छत्तीसगढ़ को समझा जाता था - (land of witches )                             (कमज़ोर दिल वाले इसे न पढ़े )

जन साधारण में  टोनही या डायन  का अंधविश्वास

लोग माने या नही माने किन्तु यह सत्य ही है की  अंधविश्वास के चलते टोनही ,डायन या प्रेतीन , का नाम आज भी  छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में भय पैदा कर देने के लिए पर्याप्त है।  सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं शहरी इलाकों में भी टोना-टोटका को लेकर आम लोगों के मन में संशय बना रहता है।  इस कथित काला जादू को लेकर टोना टोटका और टोनही जैसे संवेदनशील मुद्दे आज भी छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों मे  अपना प्रभाव रखती है। और इससे बचने के उपाय आम जन आज भी  करते ही रहते है।   


मेरे इस लेख को प्रकाशित करने का उद्देश्य अंधविश्वास फैलाना नही है ,और न ही इसके प्रमाणिकता के लिए  मेरे पास कोई प्रमाण ही है। इसे आप वास्तविक भी न  ही माने।मैंने सिर्फ  बचपन से आज तक  लोगो से सुनी हुयी बाते ,और लोगो से हुयी चर्चा और  census of  india  १९६१ में श्री के . सी दुबे ,और उनकी टीम जिन्होंने बालोद जिले (तब दुर्ग ) में गुंडरदेही के ग्राम कोसा का सर्वे किया था ,में लिए  गए  तथ्य  जो की  पुस्तक में लिखा गया है  ही इसका आधार है। लेकिन आज के सन्दर्भ में भी ये मान्य तथ्य नही है। सिर्फ मनोरंजन के लिए ही मेरे द्वारा लिखा गया है जो की सिर्फ सुनी सुनाई ही बातो पर है। 


 पर भूतप्रेत का अस्तित्व  साधु संतो, धार्मिक आध्यात्मिक उल्लेखों और परामनोविज्ञान की शोध और निष्कर्षों में भी उनके अस्तित्व के कई प्रमाण मिलते हैं। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि मृत्यु के बाद जीवन का कोई भी अस्तित्व रहता हो या नहीं। लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि भूतप्रेत कितने भी ताकतवार हों, वह मनुष्य का कोई अहित नहीं कर सकते। खैर छोड़िये इस बात को आगे 




 पुस्तक के अनुसार हेविट ने १८६९ में छत्तीसगढ़ के बारे में अपने रिपोर्ट में लिख कर प्रकाशित किया था , की छत्तीसगढ़ को बाहर के लोग चुड़ैलों की भूमि (land of witches ) समझते है। और उनकी धारणा  2nd  वर्ल्ड वॉर ख़त्म होने  के बाद भी छत्तीसगढ़ के   आर्थिक विकास होने के बावजूद भी कायम थे। देश की आज़ादी के बाद नए कल कारखाने खुलने लोगो के रोज़गार के लिए शहर की और पलायन होने से और उनका शहरीकरण होने से  इस कलंक से धीरे धीरे  मुक्ति मिलने लगी। और यह कलंक अंदरुनी ,और पहुंच विहीन गाव तक सिमित हो गए। जो की अभी भी कायम है.

 छत्तीसगढ़ में ये विचेस मर्द है तो टोन्हा और औरत हो तो टोनहिन कहलाने लगे। यह शब्द टोना मतलब काला जादू से लिया गया है। 

 श्री के सी दुबे तत्कालीन डेपुटी सुप्रिन्टेण्डेन्ट   सेन्सस ऑफ़ इंडिया  के अनुसार उन्होंने सुना था की   बिन्द्रानवागढ़ के गांव देबनाई का  नागा गोंड का उदाहरण दिया है जो की ( टाइगर ) शेर   के रूप में आकर 08 लोगो को नुकसान पंहुचा चूका है। और जिसे वर्ष 38 या 39  में ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार किया था। जादू टोना का गहन जानकार था। और वेश बदलने में माहिर था।  और इस बात की प्रमाण तत्कालीन रिकॉर्ड में दर्ज़ भी है। 

 श्री जी जगत्पति तत्कालीन  जॉइंट सेक्रेटरी गृह मंत्रालय  भारत शासन ने भी २७/७/1966 को लिखा था की भिलाई स्टील प्लांट जैसे आधुनिक तीर्थ से 15 मील  के भीतर के गावो तक में लोग बुरी आत्माओ की उपस्थिति को आज भी लोग मानते है।  तो न जाने पहुच विहीन  छेत्रो में क्या   हाल होगा। इसके निजात दिलाने हमे प्रयास की आवश्यकता है। ( उन्होंने यह बात दुर्ग के  समीपस्थ गाव कोसा के सम्पूर्ण  विलेज सर्वे करने के बाद  उसके  आधार से लिखा था) यह पुस्तक मेरे पास  जबकि  मै  गुंडरदेही विकासखण्ड में वर्ष 89 -90 में विकास खंड अधिकारी के पद में था तब  उपलब्ध होने पर उसके ही आधार से  सम्बंधित गाव के लोगो से ही बात करने का नतीजा  है। 

 जादूटोने का प्रशिक्षण  (traning in witch craft )-


 कहा  जाता है की ये टोना जानने वाले मरने से पहले किसी न किसी अन्य युवा  आदमी या औरत  को ट्रेनिंग  देकर  अपनी विद्या सीखा जाते है।ऐसा भी विश्वास किया जाता है की ये टोनहिन कुछ अशरीरी शक्तियों को अपने कंट्रोल में रखते है। जैसे की वीर मसान  जो को जमीन  में गड़े हुए मुर्दो को   अपने  वश में किये जाते है। और यह इनके ट्रेनिंग का हिस्सा है।नौसिखिए  को  नग्न ही उनके ट्रेनर 21  रात्रि को ताज़ा गड़े मुर्दो की कब्र  और शमशान घाट की परिक्रमा करने भेजते है। वे स्वयं छुपे हुए इनपर नज़र रखते है।  जब इनकी आदत बन जाती है और ये भयभीत  होकर भाग खड़े नही हुए  तथा प्रमाणित कर दिए की वे ऐसी जगह में अकेले जाने में सक्छम है  तो    इनसे भूत प्रेत का आह्वान कराया जाता है। साथ ही इन्हे मंत्रसाधित पीली हल्दी से सनी चावल भी दी जाती है ,जिसके  फेकने से बुरी शक्तिया इनसे दूर रहती है।फिर इनके ट्रेनिंग का दूसरा पार्ट जिसमे एक जाति  विशेष  के कुंवारे  मृत व्यक्ती की खोपड़ी में चावल पका कर खाना है। ताकि वह उसके लिए वीर मसान बन सके। इस पूरी ट्रेनिंग के दौरान वे  पूर्णतः नग्न रहते है। सूत के एक धागा भी धारण नही करते है। और इस कंडीशन में जब वे घर से  बाहर  निकलते है। तो पुरे घर के सभी सदस्य को कुछ नशीली पदार्थ खिला पिला जाते है ताकि वे सोये ही रहे और उनका राज़ राज़ ही रहे कोई  दीगर न जाने। क्युकी ये घर से ही नग्न निकलते है और वैसे ही वापस आते है। मतलब की  यह भी   माना  जाता है  है कि   टोनही आधी रात को निर्वस्त्र होकर अपने घर से मात्र  एक  दिया लेकर  श्मशान घाट की ओर पैदल चली जाती है। और वहां उसके जैसे ही अनेक  महिलाये मिलकरतंत्र साधना करती  है। जनश्रुतियों के मुताबिक देर रात घर से दूर श्मशान में  पहुचने के बाद  मल का दीपक बनाती है। उस दिए में बाती लगाकर मुत्र व  तेल भरकर बिना माचिस के ही प्राकृतिक तरीके से  आग जला देती है। छत्तीसगढ़ की ज्यादातर लोक कथाओं में टोनही के बाल खोल कर झूमने -  झूपने का वर्णन मिलता है। कुछ लोगो के कथनानुसार   टोनही को पीपल ,डुमर  आदि के के पेड़ के नीचे बैठकर अमावस्या की रात 12 बजे से बाल खोलकर सर हिला-हिला कर तंत्र  साधना करते हुए भी बताया जाता  है।माना जाता है कि इस तंत्रसाधना के  दौरान उसके भीतर पृथ्वी की तमाम बुरी शक्तियों का प्रभाव आ जाता है। तांत्रिकों का भी दावा हैं की इस साधना के दौरान उसे कोई भी प्रभावित नहीं कर सकता। तंत्र मंत्र के जानकार बताते है कि काला जादू की शक्ति इतनी प्रभावशाली होती है कि टोनही आसपास मौजूद किसी भी  को  महसूस कर लेती है। ऐसा भी कहा जाता है कि टोनही को साधना करते हुए अगर किसी व्यक्ति ने देख लिया तो उसकी मौत हो जाती है। या गंभीर रूप से बीमार हो जाता है। स्वाभाविक है इस तरह के दृश्य देख कर कमज़ोर दिल वाले तो सदमे से ही मर जावेंगे ,थोड़ा मज़बूत होगा तो  भी भय से बीमार हो  ही जायेगा। 


 हरेली त्योहार

आम धारणा हैं की आषाढ़ माह की अमावस्या को हरेली त्योहार के दिन  टोनही की तंत्र साधना होती है। इस दिन को छत्तीसगढ़  प्रदेश में हरेली त्योहार के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। और स्थानीय लोग उस दिन जादू टोना  की भय से  यात्रा करना पसंद नही करते है। या शाम के बाद घर से बहार निकलना पसंद नही करते।यह दिन बैगाओं से लेकर जादू टोना करने वालों के लिए सबसे अच्छा दिन  माना  जाता है ऐसे कहा जाता है क़ि   ये उस समय दीखते नही सिर्फ इनकी मुह से गिरती लार जो की जलती हुई रहती है ही बाहर के लोगो को दीखता है। लोकमान्यता है की इस अवस्था में इन्हे देखने वाला मर भी सकता है। ये  भटकटइया  (.... )  के जड़ो को चबा चबा कर चूसते है। और इसमें फॉस्फोरस जैसे कुछ पदार्थ भी मिलाते है जो  की हवा के संपर्क में आकर  जलता है।कथाओ के मुताबिक टोनही की पहचान उसकी जीभ के नीचे जलने जैसी   काले रंग के मौजूद निशान से होती है।


 लेकिन मेरे एक मित्र के अनुसार कुछ औरतो में जो की एक प्रकार के नशे के आदि होते है ,के उस नशे के पदार्थ के कारण  ही वे निशान  होते है। और इसी जड़ी बूटी जो की लार के साथ इनके मुह से गिरती है वही  अग्नि जैसी  ज्योति भी पैदा करती है। जिसे भी दूर से रात के अँधेरे में देख लोग भयभीत हो जाते है। बैगाओं या जानकार  की माने तो यह निशान उनके कुछ और जड़ी बूटी के  तंत्र साधना के दौरान सेवन के  कारण  बनता है।  टोना करने वाले अपने  तेज नज़र व  अंदर तक वेधति  हुई  आँखों (sharp penetrating eyes )  से भी  पहचाने जा सकते है। लेकिन यह आवश्यक नही है।यह दिन बैगाओं से लेकर जादू टोना करने वालों के लिए सबसे अच्छा दिन  माना  जाता है। तांत्रिकों का ये  भी दावा हैं की इस साधना के दौरा उसे कोई भी प्रभावित नहीं कर सकता।

जन साधारण में  टोनही या डायन  का अंधविश्वास 

लोग माने या नही माने किन्तु यह सत्य ही है की  अंधविश्वास के चलते टोनही ,डायन या प्रेतीन , का नाम आज भी  छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में भय पैदा कर देने के लिए पर्याप्त है।  सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं शहरी इलाकों में भी टोना-टोटका को लेकर आम लोगों के मन में संशय बना रहता है।  इस कथित काला जादू को लेकर टोना टोटका और टोनही जैसे संवेदनशील मुद्दे आज भी छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों मे  अपना प्रभाव रखती है। और इससे बचने के उपाय आम जन आज भी  करते ही नज़र आते  है।   


टोनही कौन बनती है और पहचान 

छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में लोगों की धारणा है कि आम लोगों की तरह गांव में रहने वाली ऐसी महिलाएं ही टोनही बनती हैं, जिनके बच्चे नहीं होते हैं।समाज से कटे होते है ,घर परिवार में उपेक्षित रहते है।  कई लोग ऐसी महिलाओं को डायन के नाम से भी पुकारते हैं। अपना  प्रदेश ही नहीं बिहार,झारखण्ड, ओड़ीसा  और मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में आज भी विधवा और अकेली उपेक्षित  गरीब  औरतें इसका दंश झेल रही हैं।   हमारे ग्रामीण इलाकों में टोनही के बारे में मत है कि वे नदी किनारे  चटिया-मटिया नाम के भूत को बुलाती है। इनके माध्यम से टोनही जिसे चाहे उसे अपने वश में कर सकती है और मर्जी के मुताबिक काम भी ले सकती है। 

बचाव के  रास्ते  :-- हरेली के दिन ऐसी मान्यता है कि बैगा ,ओझा और तंत्र मंत्र के जानकारों द्वारा घर में   सिद्ध नीम की टहनी बांध लेने से जादू टोने  का प्रभाव घर में नहीं आता है। हरेली के दिन गांव में हर किसी के दरवाजे पर नीम की टहनियां लटकते हुए देखा जा सकता है। गाव के  घरों की दीवारों पर गोबर से एक विशेष प्रकार का चिन्ह (चित्र ) बनाया जाता है। घर-आंगन को गाय के गोबर से लीपा जाता है। ताकि  टोना का प्रभाव बेअसर हो जावे ।

 ग्रामीण क्षेत्रों में टोनही के नाम पर प्राय:उल्लू ऑर काली बिल्ली  भी इनके काम में मदद करते है। और लोगो के  घर के ऊपर  में ही रात को आवाज़ लगा कर भय पैदा करते है। शायद ये चूहे खाने मकान  के छत पर जाते है।  भूत का अस्तित्व है या नही इस पर उस विषय के विशेषज्ञ विचार करेंगे पर यह कडवा सच है कि भूत, प्रेत  शब्द सुनते ही हम डर जाते है और उन स्थानो में जाने से  परहेज करते है जहाँ इनकी उपस्थिति बतायी जाती है। यदि सही  मे भूत केविश्वास को यदि इस दृष्टिकोण से देखे कि हमारे जानकार पूर्वजो ने कुछ जगह के  दोषो की बात को जानते हुये उससे भूत को जोड दिया हो ताकि आम जन उससे दूर रहे। इस  जगह में न जाये। और किसी भी तरह की दुर्घटना के शिकार न हो जावे। 

अंधविश्वास का दुष्परिणाम - उन औरतों को जुल्म झेलना पड़ता है जो विधवा हैं और अकेले रहती हैं। उनकी जायदाद हड़पने या रेप करने की बदनीयत से अनर्गल आरोप लगाकर परेशान किया जाता है। कभी निर्वस्त्र कर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है तो कभी गांव छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। ताकि उनकी मकान और अन्य  संपत्ति हड़पी जा सके।  

टोनही निवारण कानून 2005 -  छत्तीससगढ़ राज्य में शासन ने टोनही जैसी सामाजिक बुराइयो से  से निपटने के लिए इसके खिलाफ 2005 में टोनही निवारण कानून बनाया है। इस कानून के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति  किसी महिला को टोनही बताकर प्रताड़ित करता है  वाले व्यक्ति को पांच से 10 साल तक की सजा हो सकती है और हत्या करने पर धारा 304 के तहत मुकदमा भी चलाया जाता है। इसके बाद भी टोनही के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित किया जाना बदस्तूर जारी है।

 अंत में यह तो एक आम धारना जो की अन्धविश्वास पर आधारित और  मनगढंत ही है। इसके प्रत्यक्चदर्शी आज तक कोई भी नही है  जो की इसे प्रमाणित कर सके। ये सिर्फ कमजोर ,नासमझ बुद्धि वाले ही है जो की इस सुनी सुनाई बातो पर  विश्वास कर समाज के  निरपराध लोगो को नुकसान पहुचाने का कार्य करते है। हमे इसके लिए लोगो को जागरूक करने  जन जागरण करने की आवश्यकता आज भी है। ताकि इसके नाम से हो रहे प्रतारणा को रोक जा सके। मेरे अगले पार्ट में छत्तीसगढ़ के मान्यता के अनुसार भूत प्रेत ..... सम्बन्धी अन्य जानकारी। यदि आपको यह पार्ट पसंद आया हो तो कमेंट जरूर करे। ( इस लेख के किसी भी पार्ट के उपयोग से पूर्व मेरी  अनुमति  प्राप्त करना आवश्यक होगा ) देवेन्द्रकुमारशर्मा रायपुर,छत्तीसगढ़

Monday 26 January 2015

 सर्कस का जादू क्या आज भी कायम है ... ?
देवेंद्रकुमारशर्मा ११३ सुन्दर नगर रायपुर 

मित्रो आज गूगल बाबा ही हमारे  दादा, नाना दादी नानी है। जिनसे ही आज सारी  बाते मालूम हो पाति है।  आज  कंप्यूटर युग  है   और हर चीज झटपट माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध है, तब भी किसी भी रंगारंग कार्यक्रम को  सीधे ही सामने बैठकर  और एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज कारनामे देखने का मजा ही कुछ और है।  फिर वो डांस का प्रोग्राम हो चाहे सिनेमा सर्कस ही क्यों न हो।
 सर्कस का नाम पढ़ते ही हमारे दिमाग में शेर-चीते-भालू के खेल से सजा शानदार टैंट में चल रहा खेल-तमाशा का  ध्यान आता है।और साथ में अगर हाथी, ऊंट, तोते, चिडियां और कुत्ते भी खेल दिखाने लगें तो आंखें आश्चर्य से खुली की खुली रह जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हो कि कभी भारतीय लोगों के मनोरंजन का फिल्म के बाद सबसे लोकप्रिय माध्यम सर्कस अब करीब-करीब बिन जानवरों का खेल दिखाता है? आजकल भी देश में कहि न कहि  सर्कस चल भी रहा है। यह तो  इन सर्कस चलाने वालों की हिम्मत ही है ,कि वह इस प्राचीन कला के माध्यम को हर तरह की परेशानी के बाद भी जीवित रखे हुए हैं।

‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के मालिक संजीव और दिलीप नाथ का कहना है की , ‘सर्कस चलाना बहुत ही  मेहनत का काम है। एक सर्कस में 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं। सबके रहने-सहने और खानपान की जिम्मेदारी सर्कस कंपनी की होती है। सभी कलाकार नहीं होते। पर वे एक-दूसरे से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे मोतियों की माला। कुछ का काम होता है तंबू लगाना, उखाड़ना व उनकी देखभाल करना, प्रचार प्रसार करना, तो कुछ लोग जानवरों की सेवा में लगे रहते हैं।
 खेल दिखाने वाले कलाकार तो होते ही हैं, परंतु उन्हें कब और क्या चाहिए और कई बार जब उनका शो खराब हो रहा होता है, तो कैसे जोकर व अन्य लोग उस शो को संभाल लेते हैं, यह देखते ही बनता है।’और जो की काबिलेतारीफ ही है।

भारत में सर्कस का प्रारम्भ 

 यदि कहा  जाये तो भारत में सर्कस के आदिगुरु होने का श्रेय  महाराष्ट्र के श्री विष्णुपंत छत्रे को है। वह कुर्दूवडी रियासत में घोड़े की देखभाल की   करते थे। उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना। 1879 में वह अपने राजा जी के साथ मुंबई में ‘रॉयल इटैलियन सर्कस’ में खेल देखने गए। वह पर  उसके मालिक ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि सर्कस में खेल दिखाना भारतीयों के बस की बात नहीं है। और  इस अपमान को छत्रे सह नहीं सके और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक साल के भीतर ही भारत की पहली सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ की नींव रखी और खेल दिखाना  चालू किया  । बाद में उनका साथ देने  केरल के कीलेरी कुन्नीकानन भी उनसे जुड़ गए । वह भारतीय मार्शल आर्ट ‘कालारी पायटू’ के मास्टर थे। उन्होंने सर्कस के कलाकारों को ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल खोला। बाद में जितने भी सर्कस भारत में शुरू हुए, उनके अधिकतर मालिक इसी स्कूल से सीखकर विशेष रूप से  सर्कस जगत में आए। इसीलिए ही उन्हें भारतीय सर्कस का पितामह माना जाता है। भारत के मशहूर सर्कसों में ग्रेट रॉयल सर्कस (1909), ग्रैंड बॉम्बे सर्कस 1920 (यही सर्कस आज ‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के नाम से जाना जाता है), ग्रेट रेमन सर्कस 1920, अमर सर्कस 1920, जेमिनी सर्कस 1951, राजकमल सर्कस 1958 और जम्बो सर्कस 1977 हैं।कमला सर्कस जो की एक जहाज दुर्घटना में डूब गया ,देश के आलावा दूसरे देश में भी अपना प्रदर्शन करता था।

 सर्कस की शुरुआत कैसे और क्यों हुई …?

प्राचीन रोम में भी सर्कस होने का प्रमाण मिलता है । बाद में जिप्सियों ने इस खेल को यूरोप तक पहुंचाया। इंग्लैंड में फिलिप एशले ने पहली बार लंदन में 9 जनवरी 1768 को सर्कस का शो दिखाया था। उसने घोड़ों के साथ कुत्तों के खेल को भी सर्कस में स्थान दिया। पहली बार दर्शकों को हंसाने के लिए उसने सर्कस में जोकर को जोड़ा। इंग्लैंड के जॉन बिल रिकेट्स अमेरिका में 3 अप्रैल 1793 को अपना दल लेकर पहुंचे और वहां के लोगों को सर्कस का अद्भुत खेल दिखाया। रूस के सर्कस बहुत अच्छे माने जाते हैं और वहां 1927 में मास्को सर्कस स्कूल की स्थापना हुई।
सर्कस और जानवर
प्राचीन काल से ही सर्कस से जानवर जुड़े हैं। इनके खेल दर्शक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। परंतु सर्कस की कठिन दिनचर्या और ट्रेनिंग जानवरों के लिए बड़ी तकलीफदेह होती है। इसी को लेकर सर्कस में जानवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा और पेटा सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जानवरों के सर्कस में प्रयोग पर पाबंदी लगने लगी। 1990 में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सर्कस में जंगली जानवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। तब से कुछ ही जानवर सर्कस में प्रयोग होते हैं और उन्हें भी बैन करने की मुहिम चलाई जा रही है। ग्रीस पहला यूरोपियन देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जानवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है।

जोकर की जिंदगी
 यदि आपने मेरा नाम जोकर फिल्म  देखा होगा तो जोकर के काले सफ़ेद सरे पक्क्ष्  से आप परिचित होंगे।

सर्कस में सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं  तो जोकरों के लिए ही । खासकर बच्चे इनका इंतजार करते रहते हैं कि ये कब मंच पर आएंगे। रंग-बिरंगे चेहरे, नकली नाक व बाल लगाकर सबको हंसाने वाले जोकर दो प्रोग्राम के बीच के टाइम में फिलर का काम करते हैं। इस समय में वो सबको खूब हंसाते हैं। कई लोगों की नकल करके, जोक सुनाके वे ऐसा करते हैं। कई बार तो इनके भी अलग कार्यक्रम होते हैं। आमतौर पर जोकर वे बनते हैं, जो शारीरिक विकास में पिछड़ जाते हैं और कद कम रह जाता है। बच्चों जैसे दिखने वाले ये जोकर कई बार साठ-साठ साल की उम्र तक के होते हैं। कई जोकर आम इनसान जितने भी होते हैं, पर तालियां तो छोटे कद वाले जोकर ही बटोर ले जाते हैं। इनका काम भी काफी मेहनतभरा होता है। शो के बाद ये काफी थक जाते हैं।

सर्कस पर किताबें
यूं तो सर्कस पर बहुत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन अगर तुम्हें मौका मिले तो एनिड ब्लाइटन की सर्कस सीरीज पर लिखी तीन किताबों को जरूर पढिम्एगा। ये हैं-‘मि. गिलियानोज सर्कस’, ‘हुर्राह फॉर द सर्कस’ और ‘सर्कस डेज एगेन’। हिंदी में संजीव का उपन्यास ‘सर्कस’ पढ़ सकते हैं। सर्कस में ट्रेनर रहे दामू धोत्रे की आत्मकथा वाली पुस्तक भी बहुत अच्छी है।
सर्कस एक नजर में

सर्कस शब्द सर्कल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है घेरा।
दुनिया का सबसे पुराना सर्कस प्राचीन रोम में था। आज से करीब 2500 वर्ष पहले बने इस सर्कस का नाम था—‘मैक्सिमम’।
भारत का पहला अपना सर्कस था—‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’। इसका पहला शो मुंबई में 20 मार्च 1880 को हुआ था।
तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका के द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक जगह से दूसरी जगह शो करने जाने के लिए दो पूरी ट्रेनों का उपयोग किया जाता है। इसके बेड़े में 100 से ज्यादा हाथी और कई अन्य तरह के जानवर शामिल हैं।
क्या आप भी सर्कस को बार बार देख कर उसे प्रोत्साहित नही  करना चाहेंगे ,....?




Thursday 8 January 2015

तुरतुरिया , कसडोल , माता सीता का आश्रय स्थल

देवेन्द्र कुमार शर्मा ,सुंदरनगर ,रायपुर

मुझे इस स्थल में अनेको बार जाने का मौका मिला है।  सर्वप्रथम  यहा  पर  मै  अपने  मित्र श्री नारद चौधरी जी के साथ उनके बुलेट से सिरपुर और बार नयापारा  शासकीय यात्रा  के दौरान पंहुचा हु। उस समय मुझे याद है  हमदोनो के रायपुर से  महासमुंद  और वहां  से  सिरपुर  होते हुए कसडोल जाते समय रास्ते के   पुल - पुलियो में   तेज वर्षा की वजह से बाढ़  आ गए थे,और  हम दोनों को सिरपुर  केपुरानेविश्रामगृह में हि  रात व्यतीत  करना पड़ा  था। आज छत्तीसगढ़ का नाम  पुरातात्विक सम्पदा  से भरपूर  सिरपुर आदि के कारण  भारत  में ही नही बल्कि  विश्व मे भी अपनी एक अलग   स्थान  बनाता  जा  रहा  है।और सुबेरे मौसम खुलने पर जैसे तैसे रास्ते में  रूककर  तुरतुरिआ  को  देखते हुए कसडोल पहुंचे थे। वैसे श्री चौधरी  कसडोल से  20 ,25  km  दूर  बया  के पास  सोनपुरी ग्राम   के  ही रहने वाले है ,किन्तु इस स्थल में वे  पहली बार मेरे साथ ही पहुंचे थे।
  वैसे  तुरतुरिया रायपुर जिलासे 84 किमी एवं बलौदाबाजार जिला से 29 किमी दूर कसडोल तहसील से १२ किमी दूर प०ह्०न्० ४ बोरसी से ५किमी दूर और् सिरपुर से आने पर   23 किमी की दूरी पर   घोर वन प्रदेश के अंतर्गत  स्थित है। तब तो  मार्ग कच्चे और   जंगल वाले थे।  अब  पक्के मार्ग बन चुके है।

  यह   स्थान आसपास के छेत्र  में   सुरसुरी गंगा के नाम से भी प्रसिद्ध है तथा  प्राकृतिक दृश्यो से भरा हुआ एक मनोरम जगह  है जो कि  चारो और  से जंगल पहाडियो से घिरा हुआ है। इसके  समीप ही छत्तीसगढ़  का प्रसिद्ध अभ्यारण बारनवापारा   भी स्थित है। यहा  पर  अनेको  प्रकार के  वन प्राणी  ,फ़्लोरा व् फौना मिलते है। वैसे  तुरतुरिया बहरिया नामक गांव के समीप बलभद्री नाले पर स्थित है। एक बार  जब हम लोग जीप से सुबेरे के  समय यह पहुंचे थे ,तो नाले के आसपास  गौर ,हिरण ,भालू आदि  वन प्राणी  भी हमे भी  देखने को मिले थे।  किवदंती  है कि त्रेतायुग मे महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यही पर था और यही जगह  लवकुश की भी जन्मस्थली थी।

  इस स्थल का नाम तुरतुरिया होने का कारण  शायद यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानो के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमे से उठने वाले बुलबुलो के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है।

 इसका इक जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड मे गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड मे यह जल गिरता है वहां पर एक गोमुख बना दिया गया है जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनो ओर दो प्राचीन पाषाण   प्रतिमाए किसी वीर की स्मृती में स्थापित है जिसमे  कि इक  हाथ में तलवार लेकर  सिंह  को   मारते हुए हुए खड़ाहै और दूसरी मूर्ति जानवर से लड़ाई करता हुआ  उसकी गर्दन को मरोड़ता  हुआ  है। यही पर  विष्णु जी की भी दो प्राचीन  मूर्तीया  है।   जिनमे से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति मे है तथा दूसरी प्रतिमा मे विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है।  इस स्थान पर शिवलिंग भी खुदाई  आदि में भी  मिलते रहते  है..  इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा मे बिखरे दिखते  है जिनमे कलात्मक खुदाई किया गया है। जिससे लगता है की यह स्थल पूर्व में विकसित रहा होगा।  इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन  शिलालेख और  कुछ प्राचीन बुध्द की प्रतिमाए भी यहां स्थापित है।  यह  स्थल  बौध्द, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित  संप्रदायो की कभी  मिलीजुली संस्कृति रही होगी ऐसा प्रतीत होता है । समीप  ही नारायणपुर , शिवरीनारायण वैष्णव व्  शैव  धर्म के  धार्मिक स्थल  व् सिरपुर  बौध्द संस्कृति का भी  केन्द्र रहा होगा। आध्यात्मिक व्  पुरातात्विक  ये  स्थल इस बात को बल भी देती है।  ऎसा माना जाता है कि यहां कभी महिला  बौध्द विहार भी  थे जिनमे बौध्द भिक्षुणियो का निवास था। समीप ही  सिरपुर के  होने के कारण यह माना जा सकता है की  कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का भी  केन्द्र रहा होगा। विशेषज्ञों ने  ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओ का समय 8-9 वी शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनो की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है।  यहां पूष माह मे तीन दिवसीय मेला लगता है जिसमे  बडी संख्या मे आसपास के ग्रामवासी आते है। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटको को अपनी ओर खींचता रहता  है अक़्सर पिकनिक  मनाने भी लोग आते रहते  है।
माता सीता का आश्रय स्थल

 इस जगह  के विषय में कहा जाता है कि लंका विजय से वापस आने के बाद   श्रीराम द्वारा  माता सीता  को त्याग दिये जाने पर माता सीता  को   इसी स्थान पर वाल्मीकि  मुनि जी ने अपने आश्रम में  उन्हें आश्रय दिया  था। और उनके पुत्र  लव-कुश का भी जन्म यहीं पर हुआ   माना  जाता है ।  महर्षि वाल्मीकि को रामायण के रचियता भी माना जाता है. और इस लिए  यहहिन्दुओं की अपार श्रृद्धा व भावनाओं का केन्द्र भी माना जा सकता  है



पुरातात्विक महत्त्व
सन 1914 ई. में सर्वप्रथम  तत्कालीन अंग्रेज़ कमिश्नर एच.एम. लारी ने इस स्थल के इतिहास  को समझ  यहाँ पर पुरातात्विक खुदाई करवाई, जिसमें अनेक मंदिर और सदियों पुरानी मूर्तियाँ प्राप्त हुयी थीं। यहाँ वर्तमान में  पर कई मंदिर बनते जा रहे  है। नज़दीक ही  एक धर्मशाला भी  बना हुआ है।
मातागढ़' नामक मंदिर
यहँ पर 'मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है, जहाँ पर महाकाली विराजमान हैं। नदी के दूसरी तरफ़ एक ऊँची पहाडी है। इस मंदिर पर जाने के लिए पगडण्डी के साथ सीड़ियाँ भी बनी हुयी हैं।मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है जहाँ पर महाकाली जी  स्थापित  हैं। मातागढ़ में कभी बलि प्रथा होने के कारण बंदरों की बलि चढ़ाई जाती थी, लेकिन अब पिछले कई सालों यह बलि प्रथा बंद कर दी गई है। अब केवल सात्विक प्रसाद ही चढ़ाया जाता है। लोक  मान्यता है कि मातागढ़ में एक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम तथा आश्रम जाने के मार्ग में ही  जानकी कुटिया है,जहा ही  सीता जी रहती थी।
मैंने पाया की वर्तमान में यह पर मंदिर के आलावा अन्य सामान्य सुविधा  खाने -पीने की वस्तुये   मेला के समय को छोड़कर अनुप्लब्ध  ही रहता है। अतः आप आते है तो पूरी व्यस्था के साथ ही आवे। किन्तु यहाँ  पर आवै  तो गंदगी न फैलावे यह ध्यान में रखे  ।
 (चित्र  गूगल से साभार  व् अन्य ब्लॉगर के सहयोग से  )