Sunday 9 October 2016

जय सुर्यदेवी माँ मांडोदेवी का स्वयभू मंदिर,गोरेगांव तहसील गोंदिया जिला (महाराष्ट्र)

माँ मांडोदेवी का स्वयभू मंदिर की काफी मान्यता है जो की गोंदिया (महाराष्ट्र) जिले के गोरेगांव तहसील से 15 कि मी दूर देवरी मार्ग में स्थित है.

माँ ने यहां स्थित विशाल पहाड़ को दो भागो में तोड़ कर स्वय स्थापित हुई है
साथ ही इसी पहाड़ के निचे के भूभाग में भी माता जी की गुफा है
नवरात्र में यहां बहुत बड़ा मेला लगता है
मंदिर में महालक्छमी , महासरस्वती तथा महाकाली की स्वय प्रकट हुई मूर्ति स्थापित है
यहां का पूरा परिसर हरे भरे घने जंगलो में बसा होने से शुद्ध प्राकृतिक वातावरण मे पर्यटन और माँ के दर्शन के लिए भक्तो का रोजाना हजारो की संख्या में आना जाना लगा रहता है
माँ मांडो देवी का यह स्वयभू मंदिर का दर्शनीय स्थल लोगो के आकर्षण का केंद्र है जहा पर आसपास से लोग पहुचकर माँ का आशीर्वाद प्राप्त करते है.
यहां तक पहुच ने हेतु सड़क मार्ग उपलब्ध है.
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Wednesday 5 October 2016

हाजरा फॉल दर्रेकसा सुरंग के नज़दीक का झरना (अतिसंवेदनशील नक्सलग्रस्त क्षेत्र में बसा यह हाजरा फाल महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश राज्य के लिए मशहूर पर्यटन स्थल से कम नहीं है।

Hajra Fall, Gondia  near  railway tunnel  darrekasa dongargadh


हाजरा फॉल दर्रेकसा जलप्रपात को मै हमेशा हि भोपाल की ट्रेन यात्रा के दौरान देखा करता था जो की मुझे काफी आकर्षित करता था इसलिए एक बार डोंगरगढ़ की यात्रा के दौरान हाजरा फॉल तक निजी वाहन से दर्रेकसा क़स्बा से होते हुए चला गया हाजरा फॉल जो की वर्षाऋतू मे अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है।

यदि आप डोंगरगढ़ से नागपुर की दिशा मे हावड़ा - मुंबई रेलवे लाइन मे यात्रा कर रहे हैदर्रेकसा रेलवे स्टेशन से थोडा ही आगे पर बोगदा अँधेरा सुरंग के रूप मे आता है जिसके ख़त्म होते ही खिड़की से बाहर यदि दायी दिशा मे नज़र डालते है ,तो हरे-भरे घने जंगल के बीच आपको एक झरना गिरता हुआ दिखता है और वही एक चट्टान पर हाजरा फाल लिखा हुआ भी नज़र आता है


बह रही नदियों पहाड़ी से नीचे झरना के रूप मे ४० फीट ऊपर से गिरकर यह झरना बनता है इसलिए इसके चुंबकीय आकर्षण से बंधकर पर्यटक दूर से चला आता है। नीचे झरना के बाद यह नाला का पानी झील के रूप में जमा होता है
आप चाहे तो वहां पर केम्पिंग भी कर सकते है यह सलेकसा की और जाने वाली राजमार्ग से से 1.5 या 02 km दूर घने जंगल के अन्दर है ये गोंदिया जिले में आता है। यदि आप पैदल रेलवे पटरी के बाजू चलकर एक किलोमीटर पश्चिम दिशा मे दर्रेकसा रेलवे स्टेशन की ओर से पड़ेगा । पैदल रेलवे लाइन पर चलने का अनुभव बहुत अलग आनंद देता है। अँधेरे बंद सुरंग मे प्रवेश कर और दूसरी तरफ बोगदा पार बाहर निकलना एक अलग हि रोमांच का अनुभव आपको कराएगा . सुरंग पार करने के बाद आप दायी और उतर कर हाजरा फाल क्षेत्र तक पहुँच सकते हैं।
ट्रेकिंग के शौकीन लोगो के लिए यह एक बढ़िया स्थान है

स्थानीय बस मार्गों या ट्रेन से भी आप पहुँच सकते हैं। लेकिन खुद की बाइक या चार व्हीलर वाहन सीधे आपको स्थल तक पहुँचा जा सकता है।
डोंगरगढ़ Dongargarh (Chhattisgarh) के बाद दर्रेकसा रेलवे स्टेशन जहा की सिर्फ लोकल / पेसेंजर ट्रेन ही रुकती है .से पैदल के रास्ते मे 1.5 km के आसपास रेलवे बोगदा ख़त्म होते ही घने जंगल के बीच ,,,,अतिसंवेदनशील नक्सलग्रस्त क्षेत्र में बसा यह हाजरा फाल महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश राज्य के लिए मशहूर पर्यटन स्थल से कम नहीं है।
dhanegava, kopalagada और daladalakuhi तीन नालो का पानी इसमें आता है .
बारिश में शुरू के रूप में पानी लाल-पीले रंग मे गन्दा लेकिन शेष दिनों मे दुधिया रूप मे दीखता है

प्रगेतिहासिक गुफाये
यह समीपस्थ और कुछ नज़दीक ही अनेको गुफाये स्थित है , लेकिन इसे देखने जहा तक गाड़ी गयी वहा तक तो गये ,पर आगे पैदल जाने की आवश्यकता होने से समय की कमी के कारण से वापस हो गए थे
यदि आप जाना चाहे तो किसी न किसी स्थानीय व्यक्ति को साथ मे जरुर ले लेवे .इनमे से एक गुफा जिसमे ३०० से भी आधिक व्यक्ति बैठ सकते है दूर दर्शन मे आने वाले पूर्व
कार्यक्रम " ऐसा भी होता है " मे दिखाया भी जा चूका है
कैसे जावे
समीपस्थ एयरपोर्ट नागपुर / रायपुर है . व समीपस्थ रेलवे स्टेशन गोंदिया, डोंगरगढ़ है.जहा पर निजी वाहन किराये पर उपलब्ध है.





Thursday 25 August 2016

क्या आपने एक मुर्गे को चाकू से  दूसरे मुर्गे की जान लेने तक मनोरंजन हेतु  लड़ाते हुए देखा है ?
 (कुकड़ा गाली उर्फ़ मुर्गा बाज़ार ,गांव कस्‍बों में मनोरंजन का साधन )


                           (देखिये मुर्गों  के पैर  में चाकू बंधा  हुआ है  )
                    





मुझे याद है अपनी नौकरी के शुरुवाती  दिनों  की ।  जब  मैंने ट्राइबल एरिया से नौकरी शुरू की थी । अनेको  गाव बस्तर जिले के  काफी नजदीक लगे हुए थे ।  बस्तर में मुर्गा लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है ।

मै बाज़ार के दिन में  देखता था की उस दिन वहाँ पर  कुछ लोग बगल में मुर्गा दबाये उसे बड़े  लाड प्यार से  ले जा रहे है। लोगो से  पता लगा की इन गावो में मुर्गा लड़ाई होता है.।  ज्यादा  पता करने पर ज्ञात हुआ की " मुर्गा लड़ाई "  अत्यंत ही  रोचक होती है।
इस पर कही कही जीतने वाले मुर्गे के नाम से राशि तक लोग लगाते है।
बस्तर एवं उससे लगे  गांव  कस्‍बों में  तब यह मनोरंजन का एक प्रमुख   हिस्‍सा था ।

 वहां पर लड़ने के लिए मुर्गा को खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है, बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है।

 इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन आदिवासी समाज में मुर्गा लड़ाई कई पीढ़ियों से आम जिंदगी का मनोरंजन का हिस्सा बना हुआ है।

भले ही दुनिया पशु-पंक्षियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हों, मगर बस्तरमें जैसे कच्चे ,संबलपुर (भानुप्रतापपुर ) के इर्द गिर्द  व् लगे हुए धमतरी व बालोद जिले के इलाके में मुर्गा लड़ाई सबसे बड़ा और लोकप्रिय गेम था ।  मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार भी लगाया जाता था ।
 बाजार के पीछे मुर्गे की लड़ाई का अखाड़ा सजा रहता था और माड़ी, हंडिया, देसी दारू और अंगरेजी शराब के नशे में टुन्न लोग एक-दूसरे की मुर्गे की जान लेने को आतुर मुर्गे पर दांव लगाते रहते थे।

वैसे तो मुर्गे की लड़ाई का खेल आदिवासियों के लिए सदियों पुराना है ,बताया जाता  है लेकिन  काफी पहले इस खेल में मुर्गे की जान नहीं जाती थी,।
लेकिन मैंने  देखा की आदिवासियों के इस पारंपरिक खेल के वक्त मुर्गे के पंजे में तीखे नश्तर बांधे जाते है । और इस लड़ाई में प्रशिक्षित मुर्गे उतारे जाते हैं।
लड़ने के लिए तैयार मुर्गे के एक पैर में अंग्रेजी के अच्छर 'यू' आकार का एक हथियार बंधा हुआ होता है जिसे 'कत्थी' कहा जाता है.। ऐसा भी  नहीं  की यह कत्थी कोई भी  व्यक्ति बाँध सकता हो , इसे  बांधने की भी कला है।
 कतथी बांधने वालों को कातकीर कहा जाता है जो इस कला के माहिर होते हैं.कत्थी बांधने के बाद मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं.।

जब दो मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं तो दर्शक के रूप में उपस्थित लोग अपने मनपसंद मुर्गे पर दांव लगाते हैं.। मुर्गे की लड़ाई आमतौर पर उनके शारीरिक छमता पर  10 मिनट तक चलती है. इस दौरान मुर्गे को उत्साहित करने के लिए मुर्गाबाज (मुर्गा का मालिक) तरह-तरह का आवाज निकालता रहता है, जिसके बद मुर्गा और खतरनाक हो जाता है.लड़ने के लिए मुर्गा को खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है,।
मुर्गे आपस में कत्थी द्वारा एक दूसरे पर वार करते रहते हैं. इस दौरान मुर्गा लहुलूहान हो जाता है. कई मौकों पर पर तो कत्थी से मुर्गे की गर्दन तक कट जाती है. मुर्गो की लड़ाई तभी समाप्त होती है जब एक मुर्गा घायल हो जाए या मैदान छोड़कर भाग जाए. एक अन्य मुर्गाबाज ने मुझे चर्चा में बताया कि मुर्गो को विशेष रूप से तैयार करने के लिए उसको पौष्टिक खाना तो दिया ही जाता है, कई बार ऐसे मुर्गो को मांस भी खिलाया जाता है. लड़ाकू बनाने के लिए मुर्गो को ना केवल मादा मुर्गे से दूर रखा जाता है, बल्कि उसे कई दिनों तक अंधेरे में भी रखा जाता है.। जीतने वाला मृत मुर्गे को भी  साथ में ले  रात की पार्टी मनाता है।
अन्दरूनी कुछ बाजारों और मेलों में 'मुर्गा लड़ाई' का खास प्रकार का आयोजन किया जाता है. कई इलाकों में प्रतियोगिता भी  आयोजित होती है। .

Saturday 20 August 2016

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 प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी राज में  रायपुर से बस्तर होते उड़ीसा तक थी वन ट्राम सेवा  " जंगल की रेल " 

क्या आप जानते है की  प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी राज में यह अप्रैल 1917 का वक्त था। प्रथम विश्व युद्ध में सारी दुनिया त्राहिमाम कर रही थी ।एक तरफ मित्र देशों की सेना जनरल फाश के नेतृत्व में जर्मनी का मुकाबला कर रही थी तो उधर हिंदुस्तान में अंग्रेजों द्वारा तेजी से मशीनीकरण किया जा रहा था। ठीक इसी वक्त छत्तीसगढ़ के बस्तर में देश की पहली फॉरेस्ट ट्राम की आधारशिला रखी गई ।
  आदिवासी अंचल बस्तर में पहली वन ट्राम सेवा की आधारशिला रखी गई थी। श्रीआवेश तिवारी, नई दिल्ली के  नईदुनिया , 11 Jul 2014 में प्रकाशित लेख के अनुसार   उत्तरी बस्तर से पड़ोसी प्रांत ओडिशा के लिखमा  तक विस्तारित इस ट्राम सेवा को लोग  "जंगल की रेल" कहते थे। ट्राम सेवा से हालांकि, लकड़ी और वनोपज की ढुलाई होती थी, पर एक डिब्बा यात्रियों के लिए भी होता था।
मजेदार यह है कि इस ट्राम सर्विस को चलाने वाली कंपनी "गिलेंडर अर्बोथोट" ने ही हिमालयन दार्जीलिंग रेलवे का काम शुरू किया था, जिसका मुख्यालय उस वक्त कलकत्ता था। आज यह कंपनी देश में टेक्सटाइल उद्योग से जुड़ी हुई है। अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई ट्राम सेवा का पहला स्टेशन मेघा था। वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सकरा, नगरी, फरसिया, एलाव्ली, लिखमा तक चलती थी ।
 दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों को जब इराक से तेल की जरूरत पड़ी तो उन्होंने इस मार्ग की पटरियों, लोको और अन्य सामान को इराक की राजधानी बगदाद भेज दिया था।  लगभग 100 साल पुराने इस  रेल मार्ग को  दोबारा शुरू करने की मांग उठते  रहती  है। करीब 100 साल पुराना यह रेल मार्ग धमतरी,रेल लाइन पर कुरूद के निकट चरमुड़िया नामक स्थान से बस्तर की  ओर  मेघा  सिंगपुर से  मुड़ता था।  पहला स्टेशन मेघा था, वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सांकरा, नगरी, लिकमा तक जाती थी।
 उस समय दुगली में एक आरा मशीन लगाई गई थी। तब ट्राम भाप से चलती थी, इसी आरा मशीन से लकड़ी के स्लीपर तैयार किए जाते थे। देश में अन्य रेल मार्ग को स्थापित करने के लिए बस्तर से ही स्लीपर भेजे जाते थे। इस ट्राम लाइन के रास्ते में कहीं भी बड़े पुल नहीं थे। मैंने स्वयं देखा था की  छोटे पुलो के  उपर साल के लट्ठो से निर्मित  था। जिसके अवशेष काफी दिनों तक दीखते थे।  
  दिलचस्प यह है कि ट्राम सेवा पूरी तरह से वन विभाग का हिस्सा थी ।
   रेल मार्ग सीतानदी, उदंती अभ्यारण्य के बीचों-बीच से गुजरता था। ट्राम सेवा चूंकि भाप से चलती थी, इसलिए रास्ते में 5-10 किलोमीटर में कुआं भी बनाए गए थे। रास्ते में ही इंजन में पानी भरकर भाप बनाया जाता था। आज भी जंगल में कुआं और जर्जर स्टेशन के अवशेष मौजूद हैं।
 1929-30 के दौरान इस ट्राम सेवा में 29,865 यात्रियों ने सफर किया था, जिनसे किराये के रूप में 18 हजार रुपये वसूले गए थे। 1941 के आते-आते ट्राम चलाने वाली कंपनी घाटे में चली गई और 19 नवंबर 1941 को यह ट्राम सेवा बंद कर दी गई। वैसे बस्तर में इस ट्राम सेवा का संचालन ब्रिटिश कंपनी किया करती थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब इराक में तेल सुविधा की जरूरत पड़ी तब ट्राम सेवा में लगी पटरियां, लोको और अन्य सामान उखाड़कर इराक की राजधानी बगदाद भेज दी गई।अभी हालत यह है कि बस्तर के सात में से पांच जिले रेल सुविधा से वंचित हैं।
 उस समय  जब बस्तर सहित अन्य लोगो ने  ने ट्राम सेवा बंद नहीं करने की अपील की तो अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से ट्राम सेवा के कर्मचारियों को नोटिस भेजकर बताया गया कि युद्ध सेवाओं के लिए पटरियां उखाड़ी जा रही हैं।

 सूत्र बताते हैं कि उस समय तक स्थापित राजिम छोटी लाइन की रेल सेवा की लाइन भी उखाड़ने की बात चली थी पर राजिम पुन्नी मेला और धार्मिक महत्व को देखते हुए बाद में इस सेवा को बहाल रखा गया।नईदुनिया के पास मौजूद उस वक्त के दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेजों ने ट्राम सेवा के घाटे का पूरा जिम्मा स्थानीय आदिवासियों के मत्थे पर डाल दिया ।अंग्रेज सरकार के दस्तावेज बताते हैं कि 1929-30 के दौरान ट्राम सेवा से 29685 यात्रियों ने यात्रा की थी, जिनसे किराए के तौर पर लगभग 18 हजार रूपए वसूले गए थे ।
अंग्रेजों का मानना था कि यात्रियों की वजह से जयपुर के राजा को सप्लाई की जाने वाली लकड़ियों का कोटा कम पड़ गया, जिससे उन्हें बेहद नुकसान हुआ । यह भी पता चलता है कि जयपुर घराना इस रेलवे लाइन के और ज्यादा विस्तार में दिलचस्पी ले रहा था। हालांकि इसका विस्तार नहीं हो पाया ।
1941 आते आते कंपनी भारी घाटे में चली गई और फिर 19 नवंबर 1941 को इस ट्राम सेवा से यात्री परिवहन पूरी तरह से बंद कर दिया गया। सभी स्टेशनों पर नोटिस बोर्ड चिपका दिया गया कि जो यात्री जिस और भी जायेंगे उन्हें वापसी का टिकट नहीं मिलेगा।
उसके बाद दो मार्च 1942 को ट्रामवे के कर्मचारियों को अंग्रेज सरकार की ओर से एक और नोटिस भेजी गई, जिसमें कहा गया कि युद्ध सेवाओं के लिए ट्राम सर्विस को उखाड़ा जा रहा है। आप लोगों को आपका बकाया दे दिया जाएगा ।
कर्मचारियों और बस्तर के आम आदिवासियों ने अंग्रेजी सल्तनत से इस सेवा को बंद न करने की अपील की यहां तक कि महारानी एलिजाबेथ से भी अपील की गई मगर यह सेवा दोबारा शुरू नहीं हो पाई। उस वक्त लिखमा में एक मुसलमान स्टेशन मास्टर हुआ करते थे, जिन्होंने एक अंग्रेज महिला से शादी की थी। वो भी ट्राम सेवा बंद होने के बाद इंग्लेंड चले गए ।
रायपुर फारेस्ट ट्रामवे के सूत्रों को जानने के क्रम में हमारी मुलाकात उक्त ट्राम सर्विस में गार्ड का काम करने वाले के पुत्र धनंजय शुक्ल से हुई। धनंजय अपने पिता के नियुक्ति पत्र को दिखाते हैं तो पता चलता है कि उनके पिताजी को उस वक्त 25 रूपए प्रतिमाह तनख्वाह मिला करती थी। फिलहाल छत्तीसगढ़ के रायपुर में ही रह रहे धनंजय कहते हैं आज सरकार चाहे तो इस ट्रामवे की लाइन का फिर से इस्तेमाल कर सकती है ।

 1966 में किरंदुल से कोत्तावल्सा तक 525 किलोमीटर लंबी रेल मार्ग का निर्माण जापान सरकार ने कराया। इसमें भारत सरकार ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया। लौह अयस्क का भंडार बैलाडीला (बस्तर) में होने के कारण ही रेल लाइन का निर्माण हुआ, वहां लौह अयस्क का भंडार नहीं होता तो रेल मार्ग ही नहीं बनता।
 इस मार्ग पर एक यात्री रेलगाड़ी ही चलती है। कभी भी इस यात्री रेलगाड़ी को रद्द कर दिया जाता है। ज्ञात रहे कि दुर्ग से जगदलपुर तक साप्ताहिक यात्री रेल भी शुरू की गई है। 300 किमी दूरी तय करने में सड़क मार्ग से सात घंटे लगते हैं, लेकिन यह रेलगाड़ी 16 घंटों में दुर्ग से जगदलपुर पहुंचती है, क्योंकि यह रायपुर, महासमुंद, खरियार रोड, टिटलागढ़, कोरापुट, रायगढा  आदि से गुजरती है। 


Friday 19 August 2016

चलन से बाहर होते जा रहे रहचुली झूले

 किसी भी समारोह, , उत्सव, , मेला बाज़ार या मँडई में दिखने वाली रौनक का सीधा-सीधा ताल्लुक उस क्षेत्र की फसल की स्थिति पर तथा आर्थिक स्थिति से होता है।
फसल ठीक रही तो चहलपहल और उल्लास साफ साफ देखने में आता है। मँडई में रौनक और लोग अत्यधिक प्रसन्नचित्त नज़र आते हैं।और लड़के-लड़कियाँ बन-ठन कर घूमते हैं!

साल भर की प्रतीक्षा के बाद तो आती है उत्सव, मेला मँडई। और आती ही इसीलिये है कि लोग आपस में मेल-मुलाक़ात कर सकें। आनन्द और उमंग के दो क्षण आपस में मिल कर गुज़ार सकें। कल का किसे पता है।
और फसल की हालत कमज़ोर रही तो सारा उल्लास फीका पड़ जाता है।
आधुनिकता के चलते अब बड़े कस्बों में लगने वाले मेलों में रहचुली झूलों की पूछपरख कम हो गई है। रहचुली झूलों की जगह आधुनिक विशाल झूलों ने ले ली है। कभी मेले के शान रहे रहचुली झूले वर्तमान में चलन से बाहर होते जा रहे है। , ये झूले खत्म हो रहे है।
पर इनकी मधुर चररर,, चु की आवाज और रंगीनी अभी दूरस्थ ग्रामीण एरिया में कायम हैं
झूले में लड़कियों की झुण्ड ,लड़को के उत्साह का केंद्र होता है। ऊपर से नीचे रुमाल का गिराना ,और नीचे लड़कियों द्वारा लपक लेना। इनके मस्ती और उमंग में जोश भर देता है जो की इसी झूला में ही संभव है।
आधुनिकता के चलते अब बड़े कस्बों में लगने वाले मेलों में रहचुली झूलों की पूछपरख कम हो गई है। रहचुली झूलों की जगह आधुनिक विशाल झूलों ने ले ली है। कभी मेले के शान रहे रहचुली झूले वर्तमान में चलन से बाहर होते जा रहे है ।
कम पूछ परख के चलते इससे व्यवसाय करने वालों को अब रोजी रोटी के लिए दूसरे व्यवसाय की ओर रूख करना पड़ रहा है।एक तो इन झूलो को लाने ले जाने में परिवहन व्यय ,मेला शुल्क ,झूला झुलाने हेतु श्रमिक फिर स्वयं की व्यस्था अब इनको महंगा लगने लगा है।पिछले 30 से 35 वर्षों से वे झूला का व्यवसाय कर रहे है, इनका कहना है की अब लागत नही निकलता तथा साथ ही गांव के लोग भी शहरीकरण की वजह से पहले जैसे इन झूलो में नही बैठते है। इसलिये इस झूले से व्यवसाय करने वाले लोग अब शहरों में इन झूलों को नहीं ले जाने हेतु मन बना लेते है। मीना बाजार में आए विभिन्न प्रकार के आकर्षक झूलों ने रहझूला को चलन से बाहर कर दिया। गांव के मेलों में इसकी पूछ परख होती है। कांकेर में ग्राहकों के अभाव में झूले बंद पड़े है।
शहरों में अब रहचुली झूलों का चलन खत्म हो रहा है।क्योंकि गांव से शहर तक आने व यहां पर धंधा नहीं होने से उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ता है।

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Dk Sharma

Tuesday 16 August 2016

इंजीनियरिंग की मिसाल पेश करती सदियो से भूसे को बचाती है पत्तो से बनी " छनेरा "
कुछ वर्ष पूर्व मैं खरगोन तथा बड़वानी जिले की और से गुजर रहा था। मुझे ग्रामीण एरिया की और जिले के आदिवासी क्षेत्रो में घरो के पास झोपड़ीनुमा बनी चीज़ ने काफी ध्यान खींचा। बाद में मैंने वहां के स्थानीय निवासियों से इस सम्बन्ध में और जानकारी प्राप्त की। पता लगा कि इसका नाम " छनेरा " है।
जिले की आदिवासी क्षेत्रो में सदियो से चली आ रही छनेरा बनाने का काम अभी भी बदस्तूर जारी है। स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होने वाली झाडि़यो (आइपोमिया) बेशरम ,बांस से बनी यह छनेरा वर्षाकाल में पशुओ को दिये जाने वाले भूसे का ख़राब होने से बचाती है।
स्थानीय स्तर पर लगे पेड़ो की डालियो, बांस की खपचियो व घास-फूस से बनी इन छनेरा में आदिवासी अपने खेतो में लगे गेहूं से निकलने वाले भूसे को वर्षा के पानी से बचाने हेतु सहजते है।
देखने में कमजोर लगने वाली इन छनेरा को इतनी बारिकी व कुशलता से बनाया जाता है कि खुले में बनी इन छनेरा में वर्षा का एक बूंद पानी भी प्रवेश नही कर पाता। जिसके कारण इसमें भरा भूसा हवा-पानी से पूरी तरह सुरक्षित रहता है।
इन छनेरा के नीचे की तरफ एक वर्ग फुट से कुछ छोटा एक दरवाजा भी बनाया जाता है। इसी दरवाजे के माध्यम से भूसा निकालकर पशुओ को खाने के लिए दिया जाता है।
इंजीनियरिंग की मिसाल पेश करती इन छनेरा की संख्या आदिवासी अपने खेते से निकलने वाले भूसे व पाले गए पशुओ की संख्या के अनुसार बना कर रखते है। अलबत्ता इन छनेरा का आकार-प्रकार लगभग एक जैसा ही रहता है। इसका कारण यह है कि इस परिमाप की बनी छनेरा में भरा भूसा नीचे बने दरवाजे तक बिना किसी परिश्रम के स्वतः ही आता रहता है। अगर आपको पशुओ को निकालकर भूसा नही खिलाना हो या घर के सभी सदस्य कुछ दिनो के लिए बाहर जा रहे हो तो छनेरा में नीचे बने निकासी दरवाजे को खुला छोड़ दे। पशु निकासी दरवाजे में बारी-बारी से मुंह डालकर भूसा खाते रहेंगे। चूंकि उपर से भूसा स्वतः नीचे आता रहता है, इसलिए पशुओ को भूखा नही रहना पड़ता।
गज़ब का है न ग्रामीणों में भी किसी चीज़ को सहेजने ,और सही तरीके से उसके उपयोग हेतु दिमाग ,आप क्या कहते है ?

         ग्राम ठकुराइन टोला खारून नदी मध्य उत्तराभिमुख शिव मन्दिर


भी १४ अगस्त को मैं और मेरा छोटा भाई अपने पैतृक ग्राम में स्वयं और भाई के खेतो के मेढ पर आम , कटहल, बिही ,करौंदा तथा मूंनगा के पेड़ लगाने की विचार से साथ में लेकर गए थे। ताकि सावन  का  अंतिम दिन  में १५ अगस्त की पूर्व संध्या पर 
कम से कम  हमारे लगाए पेड  आने वाली पीढ़ी को हमारी याद तो  दिलाएगा।   काफी पहले हम लोगो का सम्मिलात काफी बड़ा आम का बगीचा रहा है। जिसे लोगो ने पैसे कमाने के लोभ में पेड़ो की बिक्री कर खेती जमीन में तब्दील कर दिया ।  अब यह ग्राम भी दुर्ग से अभनपुर तक के मार्ग पर बीच में आने से यातायात काफी बढ़ गया है। और खेती कार्य करने में श्रमिको की दिक्कतों का सामना भी करना होता है। क्योंकि अब बहुत से लोग शहर की और काम करने पलायन करने लगे है।
खैर जब हम लोग शाम को रायपुर की और वापस होने लगे तो ग्राम खट्टी के समीप भाई ने बताया की थोड़े दूर में ही राजिम के कुलेश्वर महादेव के तर्ज़ पर शिव मंदिर है। सावन का अंतिम दिन है चलकर दर्शन लाभ कर लेते है। और हम लोग वहां तक पहुच गए।
यह मंदिर रायपुर से भाटागांव से दतरेंगा ,परसदा से आगे खट्टी ग्राम लगभग 18 -20 k.m. तक आते है तो गांव से खारुन नदी तक जाने का c.c. मार्ग है , नदी पर बने पल को पार करने खारून नदी और दक्षिण दिशा से ही बह कर आते हुए नाले की संगम मध्य पर बना हुआ हमे बायीं और मंदिर दिखता है । और हम यदि दुर्ग या पाटन मार्ग से आते है तो 18 किमी दूर मोतीपुर ग्राम है औऱ यहाँ से पाटन जाने के लिए दो मार्ग हैं। एक मार्ग ग्राम फुंडा होकर जाता है और दूसरा मार्ग झींट होकर बायीं दिशा में जाता है। झींट होकर जाने वाले मार्ग पर 13 किमी की दूरी पर तुलसी ग्राम है और तुलसी ग्राम की बस्ती पार करने पर बाँयीं ओर कच्ची सड़क पर 3 किमी की दूरी पर खारून नदी के किनारे ग्राम ठकुराइन टोला है। ग्राम में निषादों का बहुतायत है। सन् 1942 में और 1947 में पुनः नदी में भयानक बाढ़ आने पर इसमें यहाँ के जान-माल को काफी क्षति पहुँची तब ग्रामवासियो ने निर्णय लिया था कि अब इस ग्राम को किसी ऊँचे टीले पर बसाया जायेगा, ।
और अब की बार निषादों ने खारून नदी से आधा कि मी दूर पीछे हट कर बस्ती बसाई। इसलिए यहाँ खारून नदी के तट पर कोई गाँव नहीं है, बस दोनों दिशा में मन्दिर ही मन्दिर नज़र आता है ।
जब हमने लोगो से बात की तो उन्होंने बताया की सन् 1941 में किसी निषाद दल के मुखिया (लोगो ने राजा कहा ) के राजिम प्रवास के दौरान में महानदी, सोंढूर और पैरी के संगम में कुलेश्वर महादेव के मंदिर को देखकर मन में यह बात आई कि ठकुराइन टोला में भी खारून नदी की और नाले के मध्य धारा में एक ऐसा हि भव्य मन्दिर का निर्माण किया जाए । उन्होंने निषाद समाज के प्रमुख लोगों से परस्पर मंत्रणा की और निषादो ने आपसी सहयोग से मन्दिर बनवाने की योजना बनाई गई।
नदी के बीच के पत्थरों को ही कुशल शिल्पकारों द्वारा वर्गाकार काटने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ और लगभग आधी शताब्दी तक काम चलने के बाद सन् 1980 तक जगती का काम पूरा हुआ। जगती के ऊपर शिव मन्दिर उत्तराभिमुख निर्मित है। गर्भगृह में शिवलिंग की पीठिका भी उत्तराभिमुख है, पर जल-प्राणालिका दक्षिण में है। मंदिर के निर्माण का कार्य सन् 1984 में पूर्ण हुआ था। धमतरी के निकट के किसी ग्राम के शिल्पकार हरि राम द्वारा निर्मित शिवलिंग की भव्य प्रतिमा इस मन्दिर में स्थापित है।
लोगो ने बताया की यहाँ शिवरात्रि पर मेला लगता है, और इस मेले के अवसर पर भारी संख्या में लोग खारून नदी में डुबकी लगाकर पुण्य अर्जित करते हैं।
अभी जब हम लोग गए थे तो लेकिन मंदिर तक पहुचने का मार्ग छोटा है किन्तु पत्थर पर कई जमा होने और घाट के बाद नुकीले पत्थर होने से फिसलन योग्य है। तथा सीढ़ी के बीच के अंतर की उचाई बुजुर्गो को तकलीफ दे सकती है। मंदिर में दत्तात्रेय और बाल्मीकि तुलसी तथा अब देवी की भी की मूर्ती स्थापित है। तथा पास ही नदी का पानी रोके जाने से और गिरने से काफी अच्छा दृश्य लगता है। किन्तु ग्राम वासियो को दोनों किनारे पर सघन वृक्छारोपण करना चाहिए। तथा वह तक पहुचने के मार्ग को निर्माण कराये जाने की आवश्यकता है।







Monday 15 August 2016

कनिष्ठ  को अपने से वरिष्ठ अधिकारी का अहम् कायम रखना चाहिए 
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पूर्वजो की याद में जीवन के अनेको रंगों में इतिहास को  दर्शाता हुआ  दो हज़ार साल पुराने  स्मृति स्तंभ और बनाये जाने के कारण को  समझना है  तो आइये  पधारिये  बस्तर  में 




यदि आपकी दिलचस्पी आदिवासी जीवन को नज़दीक से समझने और जानने की हो तो इसके लिए बस्तर भी एक अच्छी जगह है। जहा पर जीवन के अनेको रंग आपके सामने आएंगे जो की बाकी दुनिया से अनूठीऔर अलग है।जन जातीय के जीवन जीने की अनोखी तरीकों का प्रतीक है। उनमें मृतक स्मृति चिन्ह खंभे, पूरे क्षेत्र में फैला हुआ है, जो बाहर की दुनिया से आने वालो किसी भी का ध्यान इस प्राचीन संस्कृति आकर्षक सीमेंट, पत्थर या लकड़ी के खंभे में किए गए नक्काशी ,पेंटिंग ,खुदाई की और आकृष्ट हो सकता है। जो की मृतक व्यक्ति के शौक उसके सपने, और जीवन शैली का स्मरण करते हुए मृत्यु के कारण के विवरण को भी दर्शाती है।यह बड़े पत्थरों के द्वारा बना स्मृति चिन्ह की संस्कृति मुख्य रूप से मुरिया जनजाति के द्वारा अपनाया गया है,



 बस्तर की मारिया और गोंड जनजातियों का इतिहास भी 3000 साल पुराना माना जा रहा है और यह शुरू हुआ मानव के विकास के दौरान कृषि कार्य की और बढ़ते चरण के शुरू से । इसके अवशेष तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम और यहां तक कि कश्मीर जैसे अन्य राज्यों में पाए गए। कई प्राचीन लकड़ी और पत्थर के खम्भों संरक्षण के लिए कहते हैं, वहीं एएसआई ऐसे ही एक Dilmili और Gamawada पर स्थित साइट संरक्षित किया गया है



दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से बचेली के मार्ग पर १२ km की दुरी पर गामवाड़ा ग्राम में सैकड़ो की संख्या में ऊँचे लंबे प्रस्तर स्तम्भ माड़िया जनजाति के लोग अपने पुरखो की याद में स्थापित किये हुए है। 2000 साल पुराने इन स्तंभो के प्रति ग्रामीण जनो में अपार श्रद्धा और सम्मान है। ईसा पूर्व की ये संरचनाए आज भी यहाँ अपने पूर्वजो की याद दिलाती है। जो उन्हें छोड़ कर प्रकृति में लीन हो गए है। यह पर नवाखानी के अवसर पर उनके सम्मान और आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध आयोजित कर  इस विधान में मृतको की याद में नए अन्न और उपज स्मारक पर अर्पित किया जाता है। आयोजन से पूर्व स्तम्भ से सम्बंधित पूरा परिवार मिलकर स्तम्भ के आसपास की पूरी सफाई करता है।
माड़िया समुदाय के लोग जरूरतों और परिस्थितयों के चलते अलग अलग जगहों पर निवास करने लगे है ,और उसी छेत्र में उनकी मृत्यु हो जाती है। परंतु मरणोपरांत मृतक की याद में स्तम्भ का निर्माण इसी कब्रगाह में किया जाता है। सैकड़ो की संख्या में स्थित ये स्तम्भ परिवार की मुखियाओ की याद में बनाये जाते है।
चुन कर चयन किये जाते है प्रस्तर
बस्तर की माडिया जनजाति की उपजातियो के अलग अलग गोत्रज के अलग अलग कब्रगाह होते है। जिसको बनवासी अपने पूर्वजो के याद में पहाड़ो और दुरूह इलाको से खोजकर लाये गये विशेष आकृति और विशेष आकार के प्रस्तरों को स्थापित करते है। विशाल आकार के इन पत्थरो को यहाँ स्थापित करना बड़े ही मशक्कत का काम है। जमीन के ऊपर जिस उचाई तक स्तम्भ दिखाई देते है अंदर भी उतना ही इन्हें गाड़ा जाता है।
मृतक के मृत्यु के कारण ,पसंद ,उसका ड्रीम भी बताता है
मृतक की याद में  बना स्तम्भ अनुभवी पुरातत्वविद् सीएल रैकवार, जिन्होंने बस्तर के स्मारक स्तंभों के  एक विशेषज्ञ  है ,के अनुसार मुग़ल शासक राजा अकबर और उसका परिवार  अपने स्वामित्व में  मृतको की याद  में बड़े खूबसूरत  भवन  पत्थरो से बना रखे है ,जहा  पर उन्हें दफनाया गया है।आदिवासियों का मुख्य जुड़ाव जंगल से रहा है इसलिए पहले वे लकड़ी उपयोग कर इसे बनाते थे। " इन स्तंभों को  दफन मृतक के सिर के साइड पर रखा जाता है। "
दिलचस्प नमूने स्तंभो में
हम  कुछ  स्तंभो में बाइक, कार, हवाई जहाज, घोड़े, पशु, बंदूकें, या पृथ्वी पर कुछ भी के चित्रों के साथ कंक्रीट खम्भों पर दिलचस्प नमूने पाते हैं जो न केवल उनके  शौक या पसंद दर्शाती  है, लेकिन ये  भी  बताता है वो कैसे मर गया, शराब या मलेरिया  से , शराब की बोतल , मच्छर की तस्वीर बना मरने  का    कारण भी  इन स्तंभों पर दर्शाया जाता  है।
सुकमा जिले के धुर नक्सल इलाके कोमाकोलेंग का  एक अद्भुत ऐतिहासिक स्तम्भ 
 इसी तरह सुकमा जिले के धुर नक्सल इलाके कोमाकोलेंग में में भी एक अद्भुत ऐतिहासिक स्तम्भ है । एकबारगी दूर से देखने पर यह स्तम्भ बस्तर में सामान्यतः बनाये जाने वाले मृतक स्तम्भो की भांति प्रतीत होता है ; किन्तु कही न कहीं उसके अनगढ़ चित्र  ऐतिहासिकता  के किसी भाग  को   प्रमाणित करती  है । दरअसल इस काष्ठ स्तम्भ पर फरवरी १९१० की तिथि अंकित थी जो स्पष्टतः बस्तर में हुए महान भूमकाल की ओर इशारा कर रही थी,आसपास के गांव वालो को रोककर जब हमने कुछ पूछने की कोशिश की तो वो डर कर भाग निकले अंततः एक बुजुर्ग ने अपनी भाषा में समझाते हुए उसे देवधामी बताया उसके अनुसार यहाँ पर बस्तर के देवता जो की आदिवासियों के राजा भी थे; ने कुछ राक्षसो को मार गिराया था उसी की स्मृति में यह काष्ठ स्तम्भ १०५ वर्ष पूर्व इस जगह पर लगाया गया था.
चित्र में बने हुए आदिवासी उसके ही पूर्वज है चेहरे से मिलान भी  
उस बुजुर्ग ने काष्ठ स्तम्भ में बने चित्रो को दिखाते हुए अपने चेहरे से मिलान भी करवाया और यह भी बतलाया की चित्र में बने हुए आदिवासी उसके ही पूर्वज है।


पुरुषों का है प्रतीक चिन्ह
लगभग 20000 squqre feet में फैले इस कब्रगाह मे सिर्फ पुरुषो के ही मृतक स्तम्भ बनाये जाते है। महिलाओ के मृतक स्तम्भ यहाँ स्थापित नही किये जाते। परिवार की मुखिया की याद में इन्हें बड़े ही विधि विधान से बड़े आयोजन कर स्थापित किया जाता है। महिलाये उनकी याद में उनके प्रति सम्मान प्रगट करने के लिए कब्र गाह में प्रवेश कर सकती है।
संरक्षण पुरातात्विक स्थल की
2000 वर्ष पुराने इन मृतक स्तंभो को प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल व अवशेष अधिनियम १९५८ के अन्तर्गत राष्ट्रीय महत्व का धरोहर घोषित किया किया गया है। तथा कब्रगाह के चारोओर को दीवारों से घेरकर सरंक्षण   किया गया है
स्मृति स्तंभ में  परिवार के किसी मृतक  सदस्य को याद  करना  त्योहार की तरह  है
संस्कृति विभाग  जगदलपुर  के अनुसार , "यह आदिवासियों का  स्मृति स्तंभ मृतक परिवार के किसी सदस्य को याद  करने के लिए एक त्योहार की तरह  है। परिवार गरीब है, आत्मा को आखिरी विदाई के भुगतान के लिए और कबीले के  लोगो को  आमंत्रित करने से पहले सभी संसाधनों और पैसे इकट्ठा करता रहता है। यदयपि  ऐसा  करने के लिए थोड़ा समय लगता है  । " अमीर लोगों में  30000 50 000 रुपये  लागत से  और महंगा खंभे बनाकर दिखाने के लिए  बैंड बाजा  के साथ एक जुलूस निकाल कर  घूमाते  हुए  तय  जगह में गड़ाते  है  । "
शहीद  स्तंभ
दिलचस्प बात यह है कि माओवादियों को भी विद्रोहियों वे मुठभेड़ों में खो दिया है और  वे उन्हें शहीद  कहते हैं। बस्तर  के अंदरूनी हिस्सों में इन स्तंभों  को बनाया गया है ऐसे  स्मृति स्तंभों पर भारत की  प्रतीकात्मक कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का चिन्ह  हंसिया और हथौड़ा के साथ लाल रंग में बनाया गया  हैं।
 बीजापुर जिले तक जगदलपुर, Tokapar, Bastanar, दंतेवाड़ा, Gamawada, Kodenar, Katekalyan से सड़क के दोनों किनारों पर  ध्यान देने योग्य  खड़े है। उनमें से ज्यादातर इन दिनों सीमेंट और पत्थर में बना रहे हैं, क्योंकि  आदिवासियों ने जान  बूझकर लकड़ी के खंभे के लिए पेड़ नहीं  काटने के लिए

 फैसला किया है।
संरक्षित स्मारक
Dilmili पर Gamawada पर और लकड़ी के खंभे पत्थर संरक्षित स्मारकों घोषित किया गया है के तहत प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल अवशेष अधिनियम, 1958, पुरातत्वविदों कहा कि यह एक प्राचीन विश्वास है ने कहा कि जब एक आदिवासी अपने ही वांछित अंतरिक्ष,  में एक जीवन होता है वह मौत के बाद भी कुछ जगह दी और आत्मा के रहने वाले के रूप में उस जगह पर रहता है।

( Memory Pillars of Gamawada )
The large-sized pillars made of stone invite the visitors to have a glance at the age old trs.adition and culture of the local tribes. These pillars which were erected centuries back by the local inhabitants are basically the memory pillars staunched to their deceased relative