जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडतें . एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहतें हैं
इनमे से कुछ न कुछ प्राय सभी अधिकारी के जीवन में गुजरता है। अधिकारी छोटा हो या बड़ा मायने नही रखता है।
ईमानदारी और नियम से चलने के कारण ऐसे अधिकारियो को उन्हें बार-बार यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ स्थानांतरित किया जाता है। । उन्हें पदोन्नतियाँके अवसर भी कम ही मिलता है ,क्युकी ऐसे लोग अपने विभाग के उच्चाधिकारियों के नज़र से मुर्ख और बेवकूफ लोग ही होते है।
इनमे से कुछ न कुछ प्राय सभी अधिकारी के जीवन में गुजरता है। अधिकारी छोटा हो या बड़ा मायने नही रखता है।
ईमानदारी और नियम से चलने के कारण ऐसे अधिकारियो को उन्हें बार-बार यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ स्थानांतरित किया जाता है। । उन्हें पदोन्नतियाँके अवसर भी कम ही मिलता है ,क्युकी ऐसे लोग अपने विभाग के उच्चाधिकारियों के नज़र से मुर्ख और बेवकूफ लोग ही होते है।
शासकीय नौकरी . के सेवा काल मैं मैंने पाया कि बड़े अफसर भी लड़ते हैं और छोटी और बड़ी दोनो तरह की बातों पर - हाँ, इतना अवश्य है कि उनकी लडा़ई प्रायः खुलेआम न होकर लुकछिपकर होती है। इस लडा़ई के प्रायः बड़े 'ठोस' कारण होते हैं, जैसे :
1. मनभावन पद :
( महेश चंद्र द्रिवेदी एक पुलिस अधिकारी के जिनके भी जीवन में घठित संस्मरण से कुछ बाते भी ली गई है साभार )
1971 सेंट्रल पुलिस ट्रेनिंग कालेज, माउंट आबू सीनियर आफिसर्स कोर्स पूर्ण कर लखनऊ लौटने पर कई दिनों की प्रतीक्षा के उपरांत मेरी नियुक्ति एस.पी., बस्ती के पद पर कर दी गई थी, अतः आदेश मिलने की दूसरी शाम 27 मार्च को मैं कार से बस्ती के लिए चल पड़ा था। बाराबंकी में मेरे साढ़ू भाई डी.एम. नियुक्त थे, अतः रात्रि उनके साथ बिताने के इरादे से वहीं रुक गया। दूसरी सुबह जब मैं वहाँ से बस्ती के लिए चलने वाला था तो श्री सिंह, एस.पी., बस्ती का फोन आया कि मैं अभी बस्ती न आऊँ, दो-चार दिन बाद आऊँ। मैंने इसके पीछे अंतर्निहित कारण समझे बिना ही कह दिया,
'ठीक है, पर मैं फर्स्ट अप्रैल को चार्ज नहीं लेना चाहूँगा, अतः 31 तारीख को सुबह चलकर अपराह्न चार्ज ले लूँगा।'
31 तारीख को मेरे बस्ती पहुँचने पर श्री सिंह ने मुझे चार्ज सौंप दिया और मेरी आवभगत भी की, परंतु उनके बस्ती से जाने के बाद वहाँ के कई ब्राह्मणों, जो मेरे आने से प्रसन्न थे, ने मुझसे कहा, 'आप ने आने में देर क्यों कर दी, इस बीच उन्होंने कई एम.एल.एज. को अपना स्थानांतरण रुकवाने हेतु दौड़ा रखा था।'
मुझे तब तक यह भान नहीं था कि जनपद का एस.पी. बनने के लिए अन्य नियुक्तियों की अपेक्षा बड़ी मारकाट रहती है, पर बाद में मैंने पाया कि जिले के चार्ज के लिए न केवल मारकाट रहती है वरन आने वाले एस.पी. अथवा कलक्टर से जाने वाले एस.पी. अथवा कलक्टर की अनबन भी प्रायः हो जाती है क्योंकि जाने वाला यह सोचता है कि आने वाले ने उसे सप्रयत्न अपदस्थ कर दिया है। मुझे स्वयं यह स्थिति तब झेलनी पड़ी जब 1978 मैं एस.एस.पी., बरेली के पद पर तैनात हुआ। मेरे पूर्वाधिकारी अपना परिवार एस.एस.पी. के बँगले में छोड़कर नवनियुक्ति पर चले गए थे, अतः मैं सर्किट हाउस में रह रहा था। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि मेरे पूर्वाधिकारी यानी म साहब की पत्नी अपने पति के बरेली से स्थानांतरण का दोषी मुझे मान रही हैं, अतः एक शाम मैं सौजन्यवश एस.एस.पी. बँगले पर अपने पूर्वाधिकारी के परिवार से मिलने चला गया। म साहब जरा कड़क मिजाज की निकलीं और उन्होंने मुझे बँगले, जो नियमानुसार मेरा हो चुका था, में अंदर आने को ही नहीं कहा; वरन म साहब की माँ बाहर निकलकर खा जाने वाली निगाहों से मुझे घूरते हुए बोलीं, '...... साहब तो गोरखपुर में हैं।' माता जी म साहब से अधिक कड़क मालूम पड़ीं और मैं उल्टे पाँव वापस सर्किट हाउस आ गया।
अभी कुछ माह पूर्व बदायूँ जनपद में डी.एम. के स्थानांतरण पर बडा़ रोचक प्रसंग घटित हुआ था। जनपद में एक्साइज के ठेके की नीलामी की तिथि निश्चित हो चुकी थी और पता नहीं शासन को क्या सूझी कि उस तिथि के ठीक दो दिन पहले वहाँ के डी.एम. का स्थानांतरण कर दिया। यह सर्वविदित है कि एक्साइज के ठेके में लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं। नए डी.एम. साहब राकेट की स्पीड से कार चलवाकर रातों रात बदायूँ पहुँच गए और दूसरे दिन दस बजते ही चार्ज लेने की उत्कंठा डाक बँगले में डेरा डाल दिया। फिर सुबह होते ही डी.एम. के बँगले पर फोन पर फोन घुमवाना शुरू किया - पर डी.एम. साहब से सम्पर्क कैसे हो जब बँगले की सारी टेलीफोन लाइनें पहले ही काट दी गई थीं। जब नए डी.एम. साहब की बेचैनी बढ़ने लगी, तो वह बँगले के लिए रवाना हो गए,पर वहाँ से अपना-सा मुँह लेकर वापस होना पड़ा जब चपरासी से यह कहलवा दिया गया कि साहब वहाँ हैं नहीं और पता नहीं कि कहाँ गए हैं। पुराने डी.एम. साहब ठीक नीलामी के समय कलेक्टोरेट अवतरित हो गए और उन्होंने 'पूर्व-निर्धारित' ठेकेदारों के पक्ष में नीलामी करवा दी। तत्पश्चात उसी दिन नए डी.एम. को चार्ज मिल गया। कहते हैं कि एक्साइज के उन ठेकेदारों ने चपरासी से लेकर डी.एम. तक सभी का 'हक' पहले ही अदा कर दिया था, और नए डी.एम. के चार्ज ले लेने पर ठेकेदारों को दुबारा हक का भुगतान करना पड़ता, जिससे बचाने का 'नैतिक' दायित्व निभाने हेतु पुराने डी.एम. दो दिन के लिए अंतर्ध्यान हो गए थे।
कुछ वर्ष पूर्व अखबारों प्रदेश के अधिकारियों हेतु एक बड़ा मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायक प्रसंग छपा था - 'एक महामहिम की राज भवन से रुखसती पर वहाँ रखे हुए कई बहुमूल्य तोहफे गा़यब पाए गए'। स्पष्ट है, कभी-कभी स्थानांतरण बड़े-बड़ों के लिए बड़ी मुफीद चीज साबित होते है।
कुछ वर्ष पूर्व अखबारों प्रदेश के अधिकारियों हेतु एक बड़ा मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायक प्रसंग छपा था - 'एक महामहिम की राज भवन से रुखसती पर वहाँ रखे हुए कई बहुमूल्य तोहफे गा़यब पाए गए'। स्पष्ट है, कभी-कभी स्थानांतरण बड़े-बड़ों के लिए बड़ी मुफीद चीज साबित होते है।
कुछ वर्ष पूर्व अखबारों प्रदेश के अधिकारियों हेतु एक बड़ा मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायक प्रसंग छपा था - 'एक महामहिम की राज भवन से रुखसती पर वहाँ रखे हुए कई बहुमूल्य तोहफे गा़यब पाए गए'। स्पष्ट है, कभी-कभी स्थानांतरण बड़े-बड़ों के लिए बड़ी मुफीद चीज साबित होते है।
2 . फसल :
डी. एम., एस.पी. आदि व जनपदीय अधिकारियों के बँगलों में काफी खाली जमीन हुआ करती है जो सरसों, गेहूँ, आलू आदि पैदा करने के काम आती है। इन फसलों के बोने में लगी लागत का उद्गम प्रायः . साहब को ज्ञात नहीं होता है वरन जनपद के कृषि विभाग के अधिकारियों को ज्ञात होता है क्योंकि स्थापित प्रथा के अनुसार जोतने-बोने, खाद-पानी लगाने से फसल कटवाने और उसे ऊँचे भाव पर बिकवाने का 'प्रशासनिक कर्तव्य' कृषि विभाग के अधिकारियों का बनता है। सरकार को हर वर्ष अच्छा मजाक सूझता है कि वह ऐन उसी वक्त तबादले का आदेश भेज देती है जब गेहूँ पक रहा होता है अथवा आलू खुदने को तैयार होने लगता है। फिर नया अधिकारी पद पर काबिज होने के कारण फसल पर अपना अधिकार समझता है और पुराना उस पर लगी लागत को स्वयं की गाढ़ी कमाई बताने लगता है। कभी-कभी तो बँटवारे के टर्म्स शांतिपूर्वक तय हो जाते हैं, पर कभी-कभी इस बँटवारे में मैडम साहिबान ऐसा भड़क जाती हैं कि दोनों अधिकारियो के रिश्तों के बीच फसल खड़ी होकर उन्हें चिढ़ाती रहती है। भड़काने के इस 'नेक' काम में अर्दली-चपरासी भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
3 . अर्दली - चपरासी :
यद्यपि एस.पी., डी.एम. जैसे अधिकारियों के आवास हर जनपद इयरमार्क्ड हैं और उन्हें नई पोस्टिंग पर आवास की कठिनाई प्रायः नहीं होती है, तथापि कभी-कभी स्थानांतरण पर जाते समय कुछ अफसर बच्चों की पढ़ाई के लिए अपने परिवार को कुछ दिनों के लिए पुराने बँगले पर छोड़ जाते हैं।
ऐसी स्थिति में नए अधिकारी का परिवार मजबूरी बँगले के बजाय डाक बँगले मे रुकता है - और फिर शुरू हो जाता है अर्दलियों-चपरासियों के बँटवारे पर शीत युद्ध, जो कभी-कभी अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर महाभारत भी बदल जाता है।
ऐसी स्थिति में नए अधिकारी का परिवार मजबूरी बँगले के बजाय डाक बँगले मे रुकता है - और फिर शुरू हो जाता है अर्दलियों-चपरासियों के बँटवारे पर शीत युद्ध, जो कभी-कभी अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर महाभारत भी बदल जाता है।
4 . जाति - पाँति -
हमारे देश के राजनीतिबाजों ने झगड़े का एक सर्वव्यापी कारण और पैदा कर दिया है जिससे अधिकारी अब एक नवीन नीति वाक्य के अनुगामी हो गए हैं :
जाति - पाँति पूछै सब कोई ,
सगो हमारी जाति को होई
यद्यपि समस्त समाज की भाँति सरकारी कर्मचारी प्रायः अपने सजातीय को ही सगा मानते हैं,, परंतु जातियों के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था हो जाने के उपरांत देखा गया है कि प्रायः किसी भी आरक्षित वर्ग (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अथवा अन्य पिछड़ा वर्ग) से आरक्षण प्राप्त कर नियुक्त हुए अधिकारी अनारक्षित जातियों के अधिकारियों से एकमुश्त वैमनस्य रखते हैं - सम्भवतः इसके पीछे उनके मन में निहित हीन भावना इसका कारण होती है। उनमें बहुत-से आरक्षण के जातीय वर्गीकरण को अपने दुष्कर्मों के परिणाम से बचने का हथियार भी बनाते हैं।
एक . अधिकारी, जो अपनी अकर्मण्यता एवं बेईमानी के लिए कुख्यात थे, का मजबूर होकर बार-बार स्थानांतरण किया गया तो उन्होंने तत्कालीन उच्चाधिकारी के विरुद्ध ही शिकायत कर दी कि अनुसूचित जाति का होने के कारण उन्हें बार-बार स्थानांतरित किया जा रहा है।
एक . अधिकारी, जो अपनी अकर्मण्यता एवं बेईमानी के लिए कुख्यात थे, का मजबूर होकर बार-बार स्थानांतरण किया गया तो उन्होंने तत्कालीन उच्चाधिकारी के विरुद्ध ही शिकायत कर दी कि अनुसूचित जाति का होने के कारण उन्हें बार-बार स्थानांतरित किया जा रहा है।
उनके अनेक सजातीय अधिकारियों ने उनके इस प्रकार के घोर अनुशासनहीन आचरण की भर्त्सना करने के बजाय गुपचुप रूप से उनकी मदद ही की और अपने अघीन नियुक्त होने पर उन्हें सर्वोत्तम वार्षिक टिप्पणी दी।
मैं तो सदैव यही मनाता रहा हूँ और आज भी मनाता हूँ कि हे ईश्वर, तू मुझे अधिकारियों के झगड़े से बचा।
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