Sunday, 2 November 2014


" संविदा कर्मचारी ,की दिहाड़ी मज़दूर  ,, 


,हाय रे मेरी किस्मत तू मुझे कहा ले आई ,
छोड़ कर सारी दुनिया मुझे ट्रेनिंग देना ही भाई,,,
अपने नसीब की गुल्लक मैंने खुद ही तुड़वाई 
सोचा था मिलेगा रुपैय्या ,पर हाथ चवन्नी ही आई ,,
अपनी पूरी जवानी को इसके बढ़ाने में लगाई ,
न देखा दिन न देखा रात न ही कोई ख़ुशी मनाई ,,
सबसे ज्यादा काम करके भी मिली न पूरी कमाई
कम वेतन पर ही खुश रहकर मैंने ईद और दिवाली मनाई ,
परमानेंट का सपना देख देखकर,दिल में एक आस जगाई ,
अब बनूँगा ,अब बनूँगा ये सोच सोच कर रात बिताई ,,,
पर देखो रे मेरी किस्मत आज तक नही बदल पाई ,
इस निकम्मी संस्था ने कर दी मेरी जग हसाई ,,,
हाय रे मेरी किस्मत हाय हाय तू मुझे कहा ले आई ,
छोड़ कर सारी दुनिया तुझे ही मै क्यों भाई,,,,,,,?

मेरे कुछ मित्रगण जो की संविदा कर्मचारी है ,की दिहाड़ी ,, ख़ुद नही समझ पा रहे है को समर्पित 
उनके फरमाइश पर लिखी कविता है ,जिसका उद्देश्य किसी का मज़ाक उड़ाना ,या अपमानित
 करना नही समझा जाये .............,,,?

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